________________ खण्ड 1, प्रकरण : ६-श्रामण्य और काय-क्लेश 223 थी। अंगुत्तर-निकाय में बताया गया है-"भिक्षुओ ! यह सीखो कि हम सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, दंश-मशक, वात-आतप, सर्प सम्बन्धी कष्टों, शारीरिक वेदनाओं को सहन करने में समर्थ होंगे।" धुतांग साधना में भी अनेक कष्टों को सहा जाता था। बुद्ध ने भिक्षुओं से कहा था-"भिक्षुओ ! जिसने कायानुस्मृति का अभ्यास किया है, उसे बढ़ाया है, उस भिक्षु को दस लाभ होने चाहिए। कौन से दस ? ___ "वह अरति-रति-सह ( उदासी के सामने डटा रहने वाला ) होता है। उसे उदासी परास्त नहीं कर सकती। वह उत्सन्न उदासी को परास्त कर विहरता है। "वह भय-भैरव-सह होता है। उसे भय-भैरव परास्त नहीं कर सकता। वह उत्पन्न भय-भैरव को परास्त कर विहरता है। "शीत, उष्ण, भूख-प्यास, डंक मारने वाले जीव, मच्छर, हवा-धूप, रेंगने वाले जीवों के आघात ; दुरुक्त, दुरागत वचनों तथा दुःखदायी, तीव्र, कटु, प्रतिकूल, अरुचिकर, प्राणहर शारीरिक पीड़ाओं को सह सकने वाला होता है।" काय-क्लेश और परीषह की भिन्नता प्राचीन काल से ही मानी जाती रही है। श्रुतसागरगणि ने दोनों का भेद बतलाते हुए लिखा है- "काय-क्लेश अपनी इच्छा के अनुसार किया जाता है और परीषह समागत कष्ट है।" अनेकान्त दृष्टि . . जैन आचार्यों की काय-क्लेश के विषय में अनेकान्तदृष्टि रही है / उन्होंने अपेक्षा के अनुसार उसे महत्त्व भी दिया है और अनपेक्षित काय-क्लेश का विरोध भी किया है। आर्य जिनसेन ने इस अनेकान्तदृष्टि की बड़ी मार्मिक चर्चा की है। उन्होंने भगवान् ऋषभ के प्रसंग में एक चिन्तन प्रस्तुत किया है-"मुमुक्षु को अपना शरीर न तो कृश ही बनाना चाहिए और न प्रवर रसों के द्वारा उसे पुष्टि ही करना चाहिए, किन्तु उसे मध्यममार्ग का अवलम्बन लेना चाहिए-दोष-निवृत्ति के लिए उपवास आदि करने चाहिए और प्राण-संधारण के लिए आहार भी। काय-क्लेश उसी सीमा तक सम्मत है जब तक 'कि मानसिक संक्लेश उत्पन्न न हो। संक्लेश से मन का असमाधान होता है और असमाधान की स्थिति में मुनि धर्म से च्युत हो जाता है। अत: संयम-यात्रा के निर्वाह में विघ्न उपस्थित न हो, वैसे उपस्थित होना चाहिए।"५ १-अंगुत्तरनिकाय, 4 / 16 / 7 / २-विशुद्धिमग्ग, दूसरा परिच्छेद / ३-बुद्धवचन, पृ० 41 / ४-तत्त्वार्थ, 9 / 19 श्रुतसागरीय वृत्ति / ५-महापुराण, 2011-10 /