________________ 222 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / इनमें अनशन-लम्बे उपवासों तथा काय-क्लेशों को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार को कठोर साधना नहीं कहा जा सकता। ये दोनों, तपस्या के प्रथम छह प्रकार जो बहिरंग हैं, के अंग हैं / इनकी तुलना में अन्तरंग तपस्या- अंतिम छह प्रकारों का अधिक महत्त्व है। - दूसरी बात यह है कि काय-क्लेश व दीर्घकालीन उपवासों का मुनि के लिए अनिवार्य विधान नहीं है। यह अपनी रुचि का प्रश्न है। जिन मुनियों की रुचि इनकी ओर अधिक होती है, वे इन्हें स्वीकार करते हैं और जिनकी रुचि ध्यान आदि की ओर होती है, वे उन्हें स्वीकार करते हैं। सब व्यक्तियों की रुचि को एक और मोड़ा नहीं जा सकता। महावत और काय-क्लेश मृगापुत्र के माता-पिता ने कहा-"पुत्र ! मुनि-जीवन का पालन बड़ी कठोर साधन है।" यहाँ कठोर साधना का अभिप्राय काय-क्लेश से नहीं है। अहिंसा का पालन कठोर है--शत्रु और मित्र के प्रति समभाव रखना सरल काम नहीं है / सत्य का पालन भी कठोर है-सदा जागरूक रहना सरल काम नहीं है। इसी प्रकार अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और रात्रि-भोजन-विरति का पालन भी कठोर है। इस कठोरता का मूल आत्म-संयम है किन्तु कायक्लेश नहीं। ये व्रत यावज्जीवन के लिए थे इसलिए भी इन्हें कठोर कहा गया। यहाँ यह जान लेना प्रासंगिक होगा कि जैन मुनि की दीक्षा यावज्जीवन के लिए होती है, वह बौद्ध-दीक्षा की भाँति अल्पकालिक नहीं होती। ___महाव्रतों की साधना काया को कष्ट देने के लिए नहीं है। उनके द्वारा मुख्य रूप से कायिक, वाचिक और मानसिक संयम सिद्ध होता है। उसको सिद्धि में क्वचित् कायक्लेश प्राप्त हो सकता है पर वह संयम-सिद्धि का मुख्य साधन नहीं है / परीषह और काय-क्लेश मुनि के लिए बाईस प्रकार के परीषहों-कष्टों को सहने का विधान किया गया गया है, किन्तु वह काया को कष्ट देने की दृष्टि से नहीं है। अहिंसा आदि महाव्रतों की पालना करने में जो कष्ट उत्पन्न होते हैं, उन्हें काया को क्लेश देना नहों किन्तु स्वीकृत धर्म में अडिग रहना है। मध्यम प्रतिपदा में विश्वास रखने वाले इस प्रकार के कष्टों से अपने को नहीं बचाते थे। ऐसे कष्टों को शान्तिपूकि सहन करने की प्रेरणा दी जाती १-उत्तराध्ययन 19 / 24 / २-वही, 19 // 35: जावज्जोवमविस्सामो, गुणाणं तु महाभरो।