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________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 271 और अन्दर जाकर थोड़ी देर शय्या पर बैठे। उस समय दिट्ठमङ्गलिका ऋतुवती थी, उसने अंगूठे से उसकी नाभि को छू दिया। उससे उसकी कोख में गर्भ प्रतिष्ठित हो गया। बोधिसत्व ने उसे सम्बोधित कर कहा-"भद्र ! तुझे गर्भ रह गया है। तुझे पुत्र होगा। तू और तेरा पुत्र भी श्रेष्ठ लाभ तथा यश को प्राप्त होंगे। तेरा चरणोदक सारे जम्बुद्वीप के राजाओं के लिए अभिषेक-जल होगा। तेरे नहाने का जल अमृतौषध होगा, जो इसे सिर पर छिड़केंगे वे सर्वदा के लिए रोग मुक्त हो जायेंगे। मनहूस (प्राणी) से बचेंगे। तेरे चरणों में सिर रख कर प्रणाम करने वाले हजार देकर प्रणाम करेंगे, उसी प्रकार सुनाई देने की सीमा के अन्दर खड़े होकर प्रणाम करने वाले सौ देंगे, दिखाई देने की सीमा के अन्दर खड़े होकर प्रणाम करने वाले एक कार्षापण देकर प्रणाम करेंगे। अप्रमादी होकर रहो।" इस प्रकार उसे उपदेश दे, घर से निकल जनता की आँखों के ही सामने ऊपर उठ चन्द्र-मण्डल में प्रवेश किया। ब्रह्म-भक्तों ने इकट्ठे हो खड़े ही खड़े रात बिता दी। प्रातःकाल ही दिट्टमङ्गलिका को सोने की पालकी में बिठा उन्होंने उसे सिर पर उठाया और नगर में ले गये। महाब्रह्मा की भार्या है समझ जनता ने सुगन्धित माला आदि से उसकी पूजा की। जिन्हें चरणों में सिर रख कर प्रणाम करना मिलता वे हजार देते, जो सुनाई देने की सीमा के अन्दर खड़े हो प्रणाम करते वे सौ देते, जो दिखाई देने की सीमा के अन्दर खड़े हो प्रणाम करते वे एक कार्षापण देते। इस प्रकार बारह योजन की वाराणसी में लेकर घूमने से अट्ठारह करोड़ धन प्राप्त किया। फिर नगर की परिक्रमा कर नगर के बीच में महामण्डप बनवाया और कनात तनवा कर बड़े ठाट-बाट के साथ उसे वहाँ बसाया / मण्डप के पास ही सात द्वार-कोठों वाला तथा सात तल्लों वाला प्रासाद बनवाया जाने लगा। भवन निर्माण का बड़ा भारी कार्य आरम्भ हुआ। दिट्ठमङ्गलिका ने मण्डप में ही पुत्र को जन्म दिया। उसके नाम-करण के दिन ब्राह्मणों ने इकट्ठे होकर मण्डप में पैदा होने के कारण मण्डव्य कुमार ही नाम रखा। प्रासाद दस महीने में समाप्त हुआ। तब से वह बड़े 'ऐश्वर्य के साथ रहने लगी। मण्डव्य कुमार भी बड़ी शान के साथ बड़ा होने लगा। ज़ब यह सात-आठ वर्ष का हुआ तभी जम्बुद्वीप में उत्तमाचार्य इकठ्ठ हुए। उन्होंने उसे तीनों वेद पढ़ाये / सोलह वर्ष की आयु होने पर उसने ब्राह्मणों का भोजन बाँध दिया। सोलह हजार ब्राह्मण नियमित भोजन करते। चोथे द्वार-कोठे पर ब्राह्मणों को दान दिया जाता था। ____एक दिन बड़े उत्सव के दिन बहुत-सी खीर पकवाई गई / सोलह हजार ब्राह्मण चौथे द्वार-कोठे में बैठ स्वर्ण-वर्ण घृत तथा मत्रु और खाण्ड से सिक्त खीर खाते थे। कुमार भी सब अलङ्कारों से अलङ्कृत हो, सोने की खड़ाऊँ पर चढ़, हाथ में सोने का दण्डा लिये
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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