________________ खड : 1, प्रकरण : 4 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि 87 'बौद्ध, जैन आदि विभिन्न ब्राह्मण विरोधी मत-मतान्तरों का जन्म इन्हीं स्वतंत्र चिन्तकों तथाकथित नास्तिकों की बदौलत ही सम्भव हो सका'-..-'इस वाक्य की अपेक्षा यह वाक्य अधिक उपयुक्त हो सकता है कि 'बौद्ध जैन आदि विभिन्न ब्राह्मण विरोधी मतमतान्तरों का विकास आत्म-वेत्ता क्षत्रियों की बदौलत ही संभव हो सका।' क्योंकि अध्यात्म- विद्या की परम्परा बहुत प्राचीन रही है, सभवतः वेद-रचना से पहले भी रही है / उसके पुरस्कर्ता क्षत्रिय थे। ब्राह्मण-पुराण भी इस बात का समर्थन करते हैं कि भगवान् ऋषभ क्षत्रियों के पूर्वज हैं।' उन्होंने सुदूर क्षितिज में अध्यात्म-विद्या का उपदेश दिया था। ब्राह्मणों की उदारता __ ब्राह्मणों ने भगवान् ऋषभ और उनकी अध्यात्म-विद्या को जिस प्रकार अपनाया, वह उनकी अपूर्व उदारता का ज्वलन्त उदाहरण है। एम० विन्टरनिटज के शब्दों में हम यह भी न भूल जाएं कि (भारत के इतिहास में) ब्राह्मणों में ही यह प्रतिभा पाई जाती है कि वे अपनी घिसी-पिटी उपेक्षित विद्या में भी नए---विरोधी भी क्यों न हों-विचारों की संगति बिठा सकते हैं / आश्रम-व्यवस्था को, इसी विशिष्टता के साथ, चुपचाप उन्होंने अपने (ब्राह्मण) धर्म का अंग बना लिया-वानप्रस्थ और संन्यासी लोग भी उन्हीं की प्राचीन व्यवस्था में समा गए / ___आरण्यकों और उपनिषदों में विकसित होने वाली अध्यात्य-विद्या को विचार-संगम की संज्ञा देकर हम अतीत के प्रति अन्याय नहीं करते। डा० भगवतशरण उपाध्याय का मत है कि ऋग्वैदिक काल के बाद जब उपनिषदों का समय आया तब तक क्षत्रिय-ब्राह्मण संघर्ष उत्पन्न हो गया था और क्षत्रिय ब्राह्मणों से वह पद छीन लेने को उद्यत हो गए थे जिसका अभोग ब्राह्मण वैदिक-काल से किए पा रहे थे। पार्जिटर का अभिमत इससे भिन्न है / उन्होंने लिखा है- “राजाओं व ऋषियों की परम्पराएं भिन्न-भिन्न रहीं / सुदूर अतीत में दो भिन्न परम्पराएँ थीं-क्षत्रिय-परम्परा और ब्राह्मण-परम्परा। यह मानना विचार ... १-(क) वायुपुराण, पूर्वाद्ध, 33150 : नाभिस्त्वजनयत पुत्रं, मरुदेव्यां महाद्युतिः / ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् // (ख) ब्रह्माण्डपुराण, पूर्वाद्ध, अनुषंगपाद, 14 / 60 : ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् / ऋषभाद् भरतो जज्ञे, वीरः पुत्रशताग्रजः // २-प्राचीन भारतीय साहित्य, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड, पृ० 186 / - ३-संस्कृति के चार अध्याय, पृ० 110 /