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________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ब्राह्मणों से प्रश्न करते हैं कि अग्निहोत्र करने का सच्चा तरीका क्या है, और किसी से इसका सन्तोषजनक उत्तर नहीं बन पाता / यज्ञ की दक्षिणा अर्थात् 100 गाएं, याज्ञवल्क्य के हाथ लगती हैं, किन्तु जनक साफ-साफ कहे जाता है कि अग्निहोत्री की भावना अभी स्वयं याज्ञवल्क्य को भी स्पष्ट नहीं हुई और सूत्र के अनन्तर जब महाराज अन्दर चले जाते हैं, तो ब्राह्मणों में कानाफूसी चल पड़ती है 'यह क्षत्रिय होकर हमारी ऐसी की तैसी कर गया; खैर हम भी तो इसे सबक दे सकते हैं-ब्रह्मोद (के विवाद) में इसे नीचा दिखा सकते हैं / ' तब याज्ञवल्क्य उन्हें मना करता है-देखो, हम ब्राह्मण हैं और वह सिर्फ एक क्षत्रिय हैं, हम उसे जीत भी लें तो हमारा उससे कुछ बढ़ नहीं जाता और अगर उसने हमें हरा दिया तो लोग हमारी मखौल उड़ाएँगे-'देखो, एक छोटे से क्षत्रिय ने ही इनका अभिमान चूर्ण कर डाला'। और उनसे (अपने साथियों से). छुट्टी पाकर याज्ञवल्क्य स्वयं जनक के चरणों में हाजिर होता है; भगवन् मुझे भी ब्रह्म-विद्या सम्बन्धी अपने स्वानुभव का कुछ प्रसाद दीजिए।"१ / ___ और भी ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं जिनमे आत्म-विद्या पर क्षत्रियों का प्रभुत्व प्रमाणित होता है। आत्म-विद्या के पुरस्कर्ता ___ एम० विन्टरनिट्ज ने लिखा है- "जहाँ ब्राह्मण यज्ञ, योग आदि की नीरस प्रक्रिया से लिपटे हए थे, अध्यात्म-विद्या के चरम प्रश्नों पर और लोग स्वतंत्र चिन्तन कर रहे थे। . इन्हीं ब्राह्मणेतर मण्डलों में ऐसे वानप्रस्थों तथा रमते परिव्राजकों का सम्प्रदाय उठाजिन्होंने न केवल संसार और सांसारिक सुख-वैभव से अपितु यज्ञादि की नीरसता से भी अपना नाता तोड़ लिया था। आगे चल कर बौद्ध, जैन आदि विभिन्न ब्राह्मण-विरोधी मत-मतान्तरों का जन्म इन्हों स्वतंत्र-चिन्तकों तथाकथित नास्तिकों-की बदौलत सम्भव हो सका, यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है। प्राचीन यज्ञादि सिद्धान्तों के भप्मशेष से इन स्वतंत्र विचारों की परम्परा रही, यह भी एक (और) ऐतिहासिक तथ्य है। याज्ञिकों में 'जिद' कुछ घर कर पाती. और न यह नई दृष्टि कुछ संभव हो सकती। ____ "इन सबका यह मतलब न समझा जाए कि ब्राह्मणों का उपनिषदों के दार्शनिक चिन्तन में कोई भाग था ही नहीं, क्योंकि प्राचीन गुरुकुलों में एक हो आचार्य की छत्रछाया में ब्राह्मण-पुत्रों, क्षत्रिय-पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा का तब प्रबन्ध था और यह सब स्वाभाविक ही प्रतीत होता है कि विभिन्न समस्याओं पर समय-समय पर उन दिनों विचारविनिमय भी बिना किसी भेदभाव के हुआ करते थे।"२ १-प्राचीन भारतीय साहित्य, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड, पृ० 183 / २-वही, पृ० 185 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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