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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 4 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठ-भूमि 85 उसने कहा-"इस समय केकयकुमार अश्वपति इस वैश्वानर संज्ञक आत्मा को अच्छी तरह से जानता है। आइए हम उसी के पास चलें।" ऐसा कह कर वे उसके पास चले गए। उन्होंने केकयकुमार अश्वपति से कहा- "इस समय आप वैश्वानर आत्मा को अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए उसका ज्ञान हमें दें।" दूसरे दिन केकयकुमार अश्वपति ने उन्हें आत्म-विद्या का उपदेश दिया।' __ ब्राह्मणों के ब्रह्मत्व पर तीखा व्यंग करते हुए अजातशत्रु ने गार्य से कहा था"ब्राह्मण क्षत्रिय को शरण में इस आशा से जाएं कि यह मुझे ब्रह्म का उपदेश करेगा, यह तो विपरीत है। तो भी मैं तुम्हें उसका ज्ञान कराऊँगा ही।" 2 प्रायः सभी मैथिल नरेश आत्म-विद्या को आश्रय देते थे / एम० विन्टरनिटज वे इस विषय पर बहुत विशद विवेचना की है। उन्होंने लिखा है-'भारत के इन प्रथम दार्शनिकों को उस युग के पुरोहितों में खोजना उचित न होगा, क्योंकि पुरोहित तो यज्ञ को एक शास्त्रीय ढाँचा देने में दिलोजान से लगे हुए थे जब कि इन दार्शनिकों का ध्येय वेद के अनेकेश्वरवाद को उन्मूलित करना ही था। जो ब्राह्मण यज्ञों के आडम्बर द्वारा हो अपनी रोटी कमाते हैं, उन्हीं के घर में ही कोई ऐसा व्यक्ति जन्म ले ले, जो इन्द्र तक की सत्ता में विश्वास न करे, देवताओं के नाम से आहुतियाँ देना जिसे व्यर्थ नजर आए, बुद्धि नहीं मानती। सो अधिक संभव नहीं प्रतीत होता है कि यह दार्शनिक चिन्तन उन्हीं लोगों का क्षेत्र था जिन्हें वेदों में पुरोहितों का शत्रु अर्थात् अरि, : कंजूस, 'ब्राह्मणों को दक्षिणा देने से जी चुराने वाला' कहा गया है। ___"उपनिषदों में तो और कभी-कभी ब्राह्मणों में भी, ऐसे कितने ही स्थल आते हैं, जहाँ दर्शन अनुचिन्तन के उस युग-प्रवाह में क्षत्रियों की भारतीय संस्कृति को देन स्वतः सिद्ध हो जाती है। ___ "कौशीतकी ब्राह्मण (26,5) में प्राचीन भारत की साहित्यिक गतिविधि की निदर्शक एक कथा, राजा प्रतर्दन के सम्बन्ध में आती है कि किस प्रकार वह मानी ब्राह्मणों से 'यज्ञ-विद्या के विषय में जूझता है। शतपथ की 11 वी कण्डिका में राजा जनक सभी पुरोहितों का मुंह बंद कर देते हैं, और तो और ब्राह्मणों को जनक के प्रश्न समझ में ही नहीं आते ? एक और प्रसंग में श्वेतकेतु, सोमशुष्म और याज्ञवल्क्य सरीखे माने हुए १-छान्दोग्योपनिषद्, 5 / 11 / 1-7 / २-बृहदारण्यकोपनिषद्, 2 / 1 / 15 / ३-विष्णुपुराण, 4 / 5 / 34 : प्रायेणेते आत्मविद्याश्रयिणो भूपाला भवन्ति /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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