________________ 324 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन यह सुन कुमार ने 'देव ! आप यह क्या चाहते हैं ?' कह दो गाथाएँ कहीं यस्स अस्स सक्खी मरणेन राज जराय मेत्ती नरविरियसेट, यो चापि जज्जा स मरिस्सं कदाचि पस्सेय्युं तं वस्ससतं अरोगं // 7 // यथापि नावं पुरिसोदकन्हि एरेति चे नं उपनेति तीरं... एवम्पि व्याधी सततं जरा च . उपनेन्ति मच्चं वसं अन्तकस्स // 8 // 'राजन् ! जिसकी मृत्यु से मैत्रो हो, हे नरवीर्य श्रेष्ठ ! जिसका जरा के साथ सखाभाव हो और जो यह जानता हो कि मैं कभी नहीं मरूँगा उसी के सौ वर्ष तक नीरोग देखने की बात कही जा सकती है।' 'जिस प्रकार आदमो यदि नौका को पानी में चलाता है, तो वह उसे किनारे पर ले ही जाती है, उसी प्रकार जरा और व्याधि आदमी को मृत्यु के पास ले जाते हैं।' इस प्रकार प्राणियों के जीवन-संस्कार की तुच्छता प्रकट कर, 'महाराज, आप रहें, आपके साथ बातचीत करते ही करते व्याधि-जरा मरण मेरे समीप चले आ रहे हैं, अप्रमादी बन कह रहे हैं' कह, राजा तथा पिता को नमस्कार कर, अपने सेवकों को साथ ले, वाराणसी राज्य को त्यागकर प्रत्रजित होने के उद्देश्य से निकल पड़ा। यह प्रव्रज्या सुन्दर होगी सोच हस्तिपाल कुमार के साथ जनता निकल पड़ी। योजन भर का जुलूस हो गया। उसने उस जन-समूह के साथ गया तट पर पहुंच, गंगा के जल को देख, योगाभ्यास कर ध्यान लाभ किया और तब सोचने लगा-'यहाँ बहुत जनता एकत्र हो जाएगी। मेरे तीनों छोटे भाई, माता-पिता, राजा तथा देवी, सभी अनुयाइयों सहित प्रवजित हो जायेंगे, वाराणसी खाली हो जायगी, इनके आने तक मैं यहीं रहूँ।' वह जनता को उपदेश देता हुआ वहीं रहा। फिर एक दिन राजा और पुरोहित ने सोचा, 'हस्तिपाल कुमार तो राज्य छोड़ कर, लोगों को साथ ले, प्रवजित होने के उद्देश्य से जाकर गंगा-तट पर बैठ गया, हम अश्वपाल की परीक्षा कर उसे ही अभिषिक्त करेंगे।' वे ऋषि-वेष धारण कर उसके भी गृह-द्वार पर पहुंचे। उसने भी उन्हें देख, प्रसन्न हो, पास जाकर 'चिरस्सं व्रत' आदि गाथाएँ कह वैसा ही व्यवहार किया। उन्होंने उसे वैसा ही उत्तर दे अपने आने का कारण बताया। उसने पूछा-'मेरे भाई हस्तिपाल कुमार के रहते उससे पहले मैं ही कैसे श्वेत-छत्र का अधिकारी होता हूँ ?' उत्तर मिला—'तात ! तेरा भाई, 'मुझे राज्य की अपेक्षा नहीं,