________________ खण्ड 1, प्रकरण : 5 ४-विदेशों में जैन-धर्म 66 श्री विश्वम्भनाथ पाण्डे ने लिखा है-"इन साधुओं के त्याग का प्रभाव यहूदी धर्मावलम्बियों पर विशेष रूप से पड़ा। इन आदर्शों का पालन करने वालों को, यहूदियों में, एक खास जमात बन गई, जो 'ऐस्सिनी' कहलाती थी। इन लोगों ने यहूदी-धर्म के कर्म-काण्डों का पालन त्याग दिया। ये बस्ती से दूर जंगलों में या पहाड़ों पर कुटी बना कर रहते थे। जैन-मुनियों की तरह अहिंसा को अपना खास धर्म मानते थे। मांस खाने से उन्हें बेहद परहेज था / वे कठोर और संयमी जीवन व्यतीत करते थे / पैसा या धन को छूने तक से इन्कार करते थे। रोगियों और दुर्बलों की सहायता को दिन-चर्या का आवश्यक अङ्ग मानते थे। प्रेम और सेवा को पूजा-पाठ से बढ़ कर मानते थे / पशु-बलि का तीव्र विरोध करते थे। शारीरिक परिश्रम से ही जीवन-यापन करते थे। अपरिग्रह के सिद्धान्त पर विश्वास करते थे / समस्त सम्पत्ति को समाज की सम्पत्ति समझते थे। मिस्र में इन्हीं तपस्वियों को 'थेरापूते' कहा जाता था। 'थेरापूते' का अर्थ 'मौनी अपरिग्रही' है।" ___ कालकाचार्य सुवर्णभूमि (सुमात्रा) में गए थे। उनके प्रशिष्य श्रमण सागर अपने गणसहित वहाँ पहले ही विद्यमान थे। ___कौंचद्वीप, सिंहलद्वीप ( लंका ) और हंसद्वीप में भगवान् सुमतिनाथ की पादुकाएँ थीं। पारकर देश और कासहद में भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमा थी।" ऊपर के संक्षिप्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जैन-धर्म का प्रसार हिन्दुस्तान से बाहर के देशों में भी हुआ था। उत्तरवर्ती श्रमणों की उपेक्षा व अन्यान्य परिस्थितियों के कारण वह स्थायी नहीं रह सका। १-हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० 374 / २-(क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 120 / (ख) वही, बृहद्वृत्ति, पत्र 127-128 / (ग) वही, चूर्णि, पृ० 83-84 / (घ). वही, वृत्ति (सुखबोधा), पृ० 50 / (ङ) बृहत्कल्प, भाज्य, भाग 1, पृ० 73,74 / (च) निशीथ चूर्णि, उद्देशक 10 / ३-कर्नल विल्फर्ड के अनुसार क्रौंचद्वीप का सम्बन्ध बाल्टिक समुद्र के पाश्ववर्ती प्रदेश से है ( एशियाटिक रिसर्चेज, खण्ड 11, पृ० 14) / स्वर्गीय राजवाड़े के मतानुसार घृत समुद्र के पश्चिम में क्रौंचद्वीप था। जिस प्रदेश में वर्तमान समरकन्द तथा बुखारा शहर बसे हुए हैं, वह प्रदेश वास्तव में 'क्रौंचद्वीप' कहलाता था। ४-विविधतीर्थकल्प, पृ० 85 /