________________ 108 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन निर्माताओं को 'यक्ष' कहा है और लिखा है कि मौर्यकालीन शिल्पकला यक्षकला थी। उससे पूर्व युग की कला देव निर्मित समझी जाती थी। अतएव 'देव निर्मित' शब्द को यह ध्वनि स्वीकार की जा सकती है कि मथुरा का 'देव निमित' जैन-स्तूप मौर्य-काल से भी पहले लगभग पाँचवीं या छठी शताब्दी ईसवी पूर्व में बना होगा / जैन विद्वान् जिनप्रभ सूरि ने अपने विविधतीर्थकल्प ग्रन्थ में मथुरा के इस प्राचीन स्तूप के निर्माण और जीर्णोद्धार की परम्परा का उल्लेख किया है। उसके अनुसार यह माना जाता था कि मथुरा का यह स्तूप आदि में सुवर्णमय था / उसे कुबेरा नाम की देवी ने सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्व की स्मृति में बनवाया था। कालान्तर में तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के समय में इसका निर्माण इंटों से किया गया। भगवान महावीर की सम्बोधि के तेरह सौ वर्ष बाद वप्पमह सूरि ने इसका जीर्णोद्धार कराया। इस उल्लेख से यह ज्ञात होता है कि मथुरा के साथ जैन-धर्म का सम्बन्ध सुपार्श्व तीर्थङ्कर के समय में ही हो गया था और जैन लोग उसे अपना तीर्थ मानने लगे थे। पहले यह स्तूप केवल मिट्टी का रहा होगा, जैसा कि मौर्यकाल से पहले के बौद्ध-स्तूप भी हुआ करते थे। उसी प्रकार स्तूप का जब पहला जीर्णोद्धार हुआ तब उस पर ईटों का आच्छादन चढ़ाया गया। जैन-परम्परा के अनुसार यह परिवर्तन महावीर के भी जन्म के पहले तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के समय हो चुका था। इसमें कोई अत्युक्ति नहीं जान पड़ती। उसी इष्टिका निर्मित स्तूप का दूसरा जीर्णोद्धार लगभग शुंगकाल में दूसरी शती ई० पू० में किया गया। इस विवरण से डॉ० वासुदेव उपाध्याय का यह अभिमत कि 'ई० पू० के आरम्भ से मथुरा के समीप इस मत का अधिक प्रसार हुआ था' बहुत मूल्यवान् नहीं रहता। उत्तर प्रदेश में प्राप्त पुरातत्त्व और शिलालेखों के आधार से भी जैन-धर्म के व्यापक प्रसार की जानकारी मिलती है। "ईसवी सन् के आरम्भ से जैन प्रतिमा के आधार-शिला पर ( बौद्ध प्रतिमा की तरह ) लेख उत्कीर्ण मिलते हैं। लखनऊ के संग्रहालय में ऐसी अनेक तीर्थङ्कर की मूर्तियाँ सुरक्षित हैं, जिनके प्रस्तर पर कनिष्क के 76 या ८४वें वर्ष का लेख उत्कीर्ण है / गुप्त-युग में भी इस तरह की प्रतिमाओं का अभाव न था, जिनके आधार-शिला पर लेख उत्कीर्ण हैं। ध्यान मुद्रा में बैठी भगवान् महावीर की ऐसी मूर्ति मथुरा से प्राप्त हुई है। गु० स० 133 ( ई० स० 423) के मथुरा वाले लेख में हरि स्वामिनी द्वारा जैन प्रतिमा के दान का वर्णन मिलता है / स्कन्दगुप्त के शासन-काल में भद्र नामक व्यक्ति द्वारा आदिकर्तृन की प्रतिमा के साथ एक स्तम्भ का वर्णन कहोम (गोरखपुर, उत्तर प्रदेश) के लेख में है श्रेयोऽर्थ भूतभूत्यै पथि नियमवतामहतामदिकर्तृन् / १-महावीर जयन्ती स्मारिका, अप्रैल 1962, पृ० 17-18 / .