________________ खण्ड : 1 प्रकरण : 5 ५-जैन-धर्म हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में -107 महावीर के पास प्रव्रजित हुए थे। संभव है ये सब एक ही व्यक्ति के अनेक नाम हों। इस प्रकार और भी अनेक राजा भगवान् महावीर के पास प्रवजित हुए। भगवान् महावीर के बाद मथुरा जैन-धर्म का प्रमुख अंग बन गया था। मथुरा ___ डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी ने उज्जैन के बाद दूसरा केन्द्र मथुरा को माना है। उन्होंने लिखा है-"जैनों का दूसरा केन्द्र मथुरा में बन रहा था। यहाँ बहुसंख्यक अभिलेख मिले हैं, और फूलते-फलते जैन-संघ के अस्तित्व का प्रभाव मिलता है। इस संघ में महावीर और उनके पूर्ववर्ती जिनों की मूर्तियाँ और चैत्यों की स्थापना दान द्वारा की गई थी। उनसे यह भी ज्ञात होता है कि मथुरा-संघ सष्ट रूप से श्वेताम्बर था और छोटे-छोटे गग, कुल और शाखाओं में बँटा हुआ था। इनमें सबसे पुराना लेख कनिष्क के हवें वर्ष ( लगभग 87 ई० ) का है और इसमें कोटिक गण के आचार्य नागनन्दी की प्रेरणा से जैन-उपासिका विकटा द्वारा मूर्ति की प्रतिष्ठा का उल्लेख है / स्थविरावली के अनुसार इस गण की स्थापना स्थविर सुस्थित ने की थी जो महावीर के 313 वर्ष बाद अर्थात् 154 ई० पूर्व में गत हुए। इस प्रकार इस लेख से श्वेताम्बरसम्प्रदाय की प्राचीनता द्वितीय शती ई० पू० तक जाती है। मथुरा के कुछ लेखों में भिक्षुणियों का भी उल्लेख है। इससे भी श्वेताम्बरों का सम्बन्ध सूचित होता है, क्योंकि वे ही स्त्रियों को संघ-प्रवेश का अधिकार देते हैं।"२ डॉ. वासुदेव उपाध्याय के अनसार-."ईसवी सन के प्रारम्भ से मथरा के समीप इस मत का अधिक प्रचार हुआ था। यही कारण है कि कंकाली टीले की खुदाई से अनेक तीर्थङ्कर प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। उन पर दानकर्ता का नाम भी उल्लिखित है / वहाँ के आयागपट्ट पर भी अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसमें वर्णन है कि अमोहिनी ने पूजा निमित्त इसे दान में दिया था अमोहिनिये सहा पुत्रेहि पालघोषेन पोटघोषेन / - धनघोषेन आर्यवती (आयागपट्ट) प्रतिथापिता // "वह लेख 'नमो अरहतो वर्धमानस' जैन-मत से उसका सम्बन्ध घोषित करता है।" डॉ. वासुदेवशरण अग्नवाल ने मथुरा के एक स्तूप, जो जैन-आचार्यों द्वारा सुदुर अतीत में निर्मित माना जाता था, की प्राचीनता का समर्थन किया है। उन्होंने लिखा है-“तिब्बत के विद्वान् बौद्ध-इतिहास के लेखक तारानाथ ने अशोक-कालीन शिल्प के १-तीर्थङ्कर महावीर, भाग 2, पृ० 505-664 / २-हिन्दू सभ्यता, पृ० 235 / ३-प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० 124 /