________________ 203 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन ६-आवश्यक कर्म मुनि के लिए प्रतिदिन अवश्य करणीय कर्म हैं (1) सामायिक (2) चतुर्विशस्तव (3) वंदना (4) प्रतिक्रमण (5) कायोत्सर्ग (6) प्रत्याख्यान (1) समता का विकास जीवन की पहली आवश्यकता है। आत्मा की परिणति विषम होती है, तब असत् प्रवृत्तियाँ होती हैं। जब आत्मा की प्रवृत्ति सम होती है, तब असत् प्रवृत्तियाँ अपने आप निरुद्ध हो जाती हैं। इस सम परिणति का नाम ही सामायिक है। (2) प्रमोद भावना का विकास भी बहुत आवश्यक है / जैन-परम्परा में भक्ति का महत्त्व रहा है, किन्तु उसका सम्बन्ध सर्व शक्ति-सम्पन्न सत्ता से नहीं है। वह किसी शक्ति को प्रसन्न करने व उससे कुछ पाने के लिए नहीं की जाती, किन्तु उसका प्रयोजन वीतराग के प्रति होता है। कालचक्र के वर्तमान खण्ड में चौबीस तीर्थङ्कर हुए। वे सब स्वयं वीतराग और वीतराग-धर्म के प्रवर्तक थे। इसलिए उनकी स्तुति आवश्यक में सम्मिलित की गई। सामायिक होने पर ही भक्ति आदि आवश्यक कर्म सफल होते हैं, इसीलिए इनका सामायिक के बाद महत्त्व दिया गया। (3) उद्धत वृत्ति का निवारण भी आवश्यक कर्म है। वंदना करने से उद्धत-भाव नष्ट होता है और अनुकूलता का भाव विकसित होता है। (4) व्रतों में छेद हो जाएँ, उन्हें भरना भी आवश्यक कर्म है / मन चञ्चल है। वह त्यक्त कार्य के प्रति भी आसक्त हो जाता है। उससे व्रत टूट जाते हैं और आश्रव का द्वार खुल जाता है। मन को पुनः स्थिर बना व्रतों का सन्धान करने से आश्रव के द्वार बन्द हो जाते हैं। (5) काया का बार-बार उत्सर्ग करना शारीरिक, मानसिक और आत्मिक-तीनों दृष्टियों से आवश्यक है। (6) आत्मा अपने आपमें परिपूर्ण है। हेय-हेतुओं का प्रत्याख्यान नहीं होता, तभी वह अपूर्ण होती है। उनका प्रत्याख्यान होते-होते क्रमशः उसकी पूर्णता का उदय हो जाता है / इसीलिए प्रत्याख्यान भी आवश्यक कर्म है। १-उत्तराध्ययन, 29 / 8 /