________________ 142 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययनं . : .. माध्यस्थ्य-भावना ___समझाने-बुझाने पर भी सामने वाला व्यक्ति दोष का त्याग न करे, उस स्थिति में उत्तेजित न होना, किन्तु योग्यता की विचित्रता का चिन्तन करना / ' भावना-योग के द्वारा. वाञ्छनीय संस्कारों का निर्माण कर अवाञ्छनीय संस्कारों का उन्मूलन किया जा सकता है। भावना-योग से विशुद्ध ध्यान का क्रम, जो विच्छिन्न होता है, वह पुनः सध जाता है। स्थान-योग पतञ्जलि के अष्टाङ्ग-योग में तीसरा अङ्ग आसन है। जैन योग में आसन के अर्थ में 'स्थान' शब्द का प्रयोग मिलता है। आसन का अर्थ है 'बैठना'। स्थान का अर्थ है 'गति को निवृत्ति' / स्थिरता आसन का महत्त्वपूर्ण स्वरूप है। वह खड़े रह कर, बैठ कर, और लेट कर तीनों प्रकार से की जा सकती है / इस दृष्टि से आसन की अपेक्षा 'स्थान' शब्द अधिक व्यापक है। स्थान-योग के तीन प्रकार हैं (1) ऊर्ध्व-स्थान, (2) निषीदन-स्थान और (3) शयन-स्थान / ऊर्ध्व-स्थान-योग खड़े रह कर किए जाने वाले स्थानों को 'ऊर्ध्व-स्थान-योग' कहा जाता है। आचार्य शिवकोटि के अनुसार ऊर्ध्व-स्थान के सात प्रकार हैं १-उत्तराध्ययन, 13 / 23 / २-योगशास्त्र, 4 / 122 : आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः / त्रुटितामपि संधत्ते, विशुद्धध्यानसन्ततिम् // ३-ओघनियुक्ति भाज्य, गाथा 152 : उड्ढनिसीयतुयट्टण ठाणं तिविहं तु होइ नायव्वं / ४-मूलाराधना, 3223 : साधारणं सविचारं सणिरुद्धं तहेव वोसटुं। समपाद मेगपादं, गिद्धोलीणं च ठाणाणि //