________________ 137 खण्ड: 1, प्रकरण : 7 २-योग ...... (5) विनय / () वैयावृत्त्य। (10) स्वाध्याय / (11) ध्यान / (12) व्युत्सर्ग। जैन-दर्शन अनेकान्तवादी है। इसीलिए वह कोरे तो-योग का समर्थक नहीं है / वह श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र और तप में सामञ्जस्य स्थापित करता है और केवल श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र या तप को मान्यता देने वाले उसकी दृष्टि में अपूर्ण हैं / २-योग जैन योग की अनेक शाखाएं हैं-दर्शन-योग, ज्ञान-योग, चारित्र-योग, तपो-योग, स्वाध्याय-योग, ध्यान-योग, भावना-योग, स्थान-योग, गमन-योग और आतापना-योग। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपो-योग की चर्चा साधना के प्रकरण में की जा चुकी है। स्वाध्याय-योग ज्ञान-योग का ही एक प्रकार है / स्वाध्याय और ध्यान-योग का समावेश तपो-योग में भी होता है। इस प्रकरण में हम भावना, स्थान, गमन और आतापनाइन योगों की चर्चा करेंगे। भावना-योग साधना के प्रारम्भ में प्राचीन जीवन का विघटन और नए जीवन का निर्माण करना होता है। इस प्रक्रिया में भावना का बहुत बड़ा उपयोग है। जिन चेष्टाओं व संकल्पों द्वारा मानसिक विचारों को भावित या वासित किया जाता है, उन्हें 'भावना' कहा जाता है। महर्षि पतञ्जलि ने भावना और जप में अभेद माना है। . भावना के अनेक प्रकार हैं / ज्ञान, दर्शन, चारित्र, भक्ति आदि जिन-जिन चेष्टाओं व अभ्यासों से मानस को भावित किया जाता है, वे सब भावनाएं हैं अर्थात् भावनाएँ असंख्य हैं। फिर भी उनके कई वर्गीकरण मिलते हैं। पाँच महाव्रत की पच्चीस १-पासणाहचरियं, पृ० 460 : भाविज्जइ वासिज्जइ जीए जीवो विसुखचेट्टाए सा भावणत्ति बुच्चइ। . २-पातञ्जल योग, सूत्र 1128 : तज्जपस्तदर्थभावनम् / ३-पासणाहचरियं, पृ० 460 /