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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 33 और सिद्धान्त निरूपणा में कुछ भेद था तो बहुत समानता भी थी, किन्तु उसमें मुख्य भेद आजीविका की वृत्ति की था। आजीवक-श्रमण विद्या आदि के प्रयोग द्वारा आजीविका करते थे। जैन-श्रमणों को यह सर्वथा अमान्य था। जो श्रमण लक्षण, स्वप्न और अंगविद्या का प्रयोग करते थे, उन्हें जैन-श्रमण कहने को भी वे तैयार नहीं थे।' आजीवक लोग मूलतः पार्श्व की परम्परा से उद्भूत थे, यह मानना निराधार नहीं है / सूत्रकृतांग (1 / 1 / 2 / 5) में नियतिवादियों को पार्श्वस्थ कहा है एवमेगेहु पासत्था, ते मुजो विप्पगमिआ / एवं उवद्विआ संता, ण ते दुक्खविमोक्खया // वृत्तिकार ने पार्श्वस्थ का अर्थ 'युक्ति से बाहर ठहरने वाला' या 'पाश-बन्धन में स्थित' किया है२, किन्तु ये सारे अर्थ कल्पना से अधिक मूल्य नहीं रखते / वस्तुतः पार्श्वस्थ का अर्थ 'पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बन्धित' होना चाहिए। भगवान् महावीर ने तीर्थ की स्थापना की और वे चौबीसवें तीर्थङ्कर हुए। उसके पश्चात् भगवान् पार्श्व के अनेक शिष्य भगवान् महावीर के तीर्थ में प्रवजित हो गए और अनेक प्रवजित नहीं भी हुए। हमारा ऐसा अनुमान है कि भगवान् पार्श्व के जो शिष्य भगवान् महावीर के शासन में सम्मिलित नहीं हुए उनके लिए 'पार्श्वस्थ' शब्द प्रयुक्त हुआ है तथा भगवान् महावीर से पहले ही कुछ साधु भगवान् पार्श्व की मान्यता का अतिक्रमण कर अपने स्वतंत्र विचारों का प्रचार कर रहे थे। उनके लिए भी 'पार्श्वस्थ' शब्द का प्रयोग किया गया है / पहली श्रेणी वालों को 'देशतः पार्श्वस्थ' कहा गया है एवं दूसरी श्रेणी वालों को 'सर्वतः पार्श्वस्थ' कहा गया है। भगवान् महावीर के तीर्थ-प्रवर्तन के बाद भी पार्श्व की परम्परा के जो श्रमण जैन-धर्म की रत्नत्रयी-ज्ञान, दर्शन और चारित्र-से सर्वथा विमुख होकर मिथ्या-दृष्टि का प्रचार करने में रत थे, उन्हें 'सर्वतः पार्श्वस्थ' कहा गया है। १-उत्तराध्ययन, 8 / 13;157,16 / २-सूत्रकृतांग, 13112 / 5 वृत्ति : युक्तिकदम्बकादबहिस्तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः परलोकक्रियापार्श्वस्था वा, नियतिपक्षसमाश्रयणात्परलोक क्रियावैयर्थ्य, यदिवा-पाश इव पाशः-कर्मबन्धनं, तच्चेह युक्तिविकलनियतिवादप्ररूपणं तत्र स्थिताः पाशस्थाः। ३-प्रवचनसारोद्धार, गाथा 104-105 : सो पासत्यो दुविहो, सव्वे देसे य होइ नायव्वो। सव्वं मि नाणदंसणचरणाणं जो उ पासंमि // देसंमि य पासत्थो, सेजायरऽभिहडरायपिण्डं च / नीयं च अग्गपिण्डं मुंजइ निकारणे चेव //
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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