________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 56 बौद्ध-साहित्य में समता को महवत्त्पूर्ण स्थान दिया गया है। किन्तु समण शब्द उससे व्युत्पन्न है, ऐसा कोई स्थल हमें उपलब्ध नहीं हुआ। फिर भी श्रमण शब्द की जो व्याख्या है, उससे उसकी समभावपूर्ण स्थिति का ही बोध होता है / सभिय परिव्राजक के प्रश्न पर भगवान् बुद्ध ने कहा-- समितावि पहाय पुञ्जपापं, विरजो जत्वा इमं परं च लोकं / जातिमरणं उपातिवत्तो, समणो तादि पवुच्चते तथता // 1 -जो पुण्य और पाप को दूर कर शान्त हो गया है, इस लोक और परलोक को जान कर रज-रहित हो गया है, जो जन्म के परे हो गया है, स्थिर, स्थितात्मा वह 'श्रमण' कहलाता है। समण का सम्बन्ध शम (उपशम) से भी है। जो छोटे-बड़े पापों को सर्वथा शमन करने वाला है, वह पाप के शमित होने के कारण श्रमण कहा जाता है / समता के आधार पर ही भिक्षु-संघ में सब वर्गों के मनुष्य दीक्षित होते थे / भगवान् बुद्ध ने श्रमण की उत्पत्ति बतलाते हुए कहा था "वाशिष्ठ ! एक समय था जब क्षत्रिय भी-'मैं श्रमण होऊंगा' (सोच) अपने धर्म को निंदते घर से बेघर हो प्रव्रजित हो जाता था। ब्राह्मण भी०। वैश्य भी०। शूद्र भी० / "वाशिष्ठ ! इन्हीं चार मण्डलों से श्रमण-मण्डल की उत्पत्ति हुई / उन्हीं प्राणियों का दूसरों का नहीं, धर्म से अधर्म नहीं / धर्म ही मनुष्यों में श्रेष्ठ है, इस जन्म में भी और पर-जन्म में भी।"3 .... उत्तराध्ययन के प्रमुख पात्रों में चारों वर्गों से दीक्षित मुनि थे। नमि राजर्षि, संजय, मृगापुत्र आदि क्षत्रिय थे। कपिल, जयघोष, विजयघोष, भृगु आदि ब्राह्मण थे / अनाथी, समुद्रपाल आदि वैश्य थे / हरिकेशबल, चित्रसंभूत आदि चाण्डाल थे। . श्रमणों की यह समता अहिंसा पर आधारित थी। इस प्रकार समता और अहिंसाये दोनों तत्त्व संमण (या श्रमण) संस्कृति के मूल बीज थे। १-सुत्तनिपात, 32 // 11 // २-धम्मपद, धम्मट्टवग्ग 19 : यो च समेति पापानि, अणुं थूलानि सब्बसो। समितत्ता हि पापानं, समणो त्ति पवुच्चति // ३-दीघनिकाय, 3 / 3, पृ० 245 /