________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन यूप मृग नगहंस श्वपाकसत्यनर- स्थलीभुजङ्गद्विजउरगसत्कारमुखरीस्थविरगणधर- इयति रक्षति वा अर्थः। युवन्ति तेनात्मनः समुच्छ्रितेन यूपा। मृग्यते इति मृगः / न गच्छतीति नगः। हसन्तीति हंसाः। गां गच्छतीति गङ्गा। श्वयति स्वसिति वाचा पुनः पञ्चतीति श्वपाकाः / सद्भ्यो हितं सत्यम् / नृत्यत इति नरः / स्थालायालं स्थली। भुजाभ्यां गच्छतीति भुजङ्गः / दो वारा जाता द्विजाः / उरेण गच्छतीति उरगः / शोभनः कारः सत्कारः। मुखेन अरिमावहतीति मुखरी। . स्थिरीकरणात् स्थविरः / गणं धारयतीति गणवरः / (पृ० 210) (पृ० 211) (पृ० 214) (पृ० 214) (पृ० 214) (पृ० 214) (पृ० 215) (पृ० 215) (पृ० 216) (पृ० 216) (पृ० 226) (पृ० 231) (पृ० 231) (पृ० 236) (पृ० 245) (पृ० 270) (पृ० 270) ३-सभ्यता और संस्कृति उत्तराध्ययन की रचना अनेक-कर्तृक है। उसका रचना-काल वीर-निर्वाण की पहली शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक का है। इसके मुख्य व्याख्या-ग्रन्थ चार हैं (1) नियुक्ति- द्वितीय भद्रबाहु (विक्रम की छठी शताब्दी)। (2) चूर्णि- गोपालिक महत्तर शिष्य (विक्रम की सातवीं शताब्दी)। (3) बृहद्वृत्ति-वादिवेताल शान्ति सूरि (विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी)। (4) सुखबोधा-नेमिचन्द्रसूरि (विक्रम की बारहवीं शताब्दी)। प्रस्तुत अध्ययन मूल आगम तथा उक्त व्याख्या-ग्रन्थों के आधार पर लिखा गया है। इससे प्रागमकालीन तथा व्याख्याकालीन सभ्यता और संस्कृति के विविध रूप हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं।