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________________ 260 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन से भीषण गर्जारव किया। हाथी उसकी ओर दौड़ा। यह देख कुमार ने अपने उत्तरीय को गोल गेंद-सा बना हाथी की ओर फेंका। तत्क्षण ही हाथी ने उस गेंद को अपनी सूंड से पकड़ कर आकाश में फेंक दिया। और भी अनेक चेष्टाएं की। हाथी अत्यन्त कुपित हो गया। कुमार ने उसे छल से पकड़ लिया और अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं से परिश्रान्त कर छोड़ दिया। कुमार उत्पथ से आश्रम की ओर चल पड़ा। वह दिग्मूढ़ हो गया था। इधर-उधर घूमते-घूमते वह एक नगर में पहुंचा। वह नगर जीर्ण-शीर्ण हो चुका था। उसके केवल खण्डहर ही अवशेष थे। वह उन खण्डहरों को आश्चर्य की दृष्टि से देखने लगा। देखते-देखते उसकी आँखें एक ओर जा टिकीं। उसने एक खड्ग और चौड़े मुंह वाला बाँस का कुंडा देखा / उसका कुतूहल बढ़ा। परीक्षा करने के लिए उसने खड्ग से कंडे पर प्रहार किया। एक ही प्रहार में कुंडा नीचे गिर गया। उसके अन्दर से एक मुंड निकला / मनोहर सिर को देख उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। उसने सोचा--धिक्कार है मेरे व्यवसाय को ! उसने अपने पराक्रम की निन्दा की, बहुत पश्चात्ताप किया / उसने एक ओर ऊंचे बंधे हुए पाँव वाले कबंध को देखा / उसकी उत्सुकता और बढ़ी। आगे उसने एक उद्यान देखा। वहाँ एक सप्तभौम प्रासाद था। उसके चारों ओर अशोक-वृक्ष थे। वह धीरे-धीरे प्रासाद में गया। उसने वहाँ एक स्त्री देखी। वह विकसित कमल तथा विद्याधर सुन्दरी की तरह थी। उसने पूछा- “सुन्दरी ! तुम कौन हो ?" सुन्दरी ने समंश्रम कहा-"महाभाग ! मेरा वृत्तान्त बहुत बड़ा है / तुम ही इसका समाधान दे सकते हो / तुम कौन हो ? कहाँ से आए हो ?" कुमार ने कोकिलालाप की तरह मधुर उसको वाणी को सुन कर कहा-"सुन्दरी ! मैं पांचाल देश के राजा ब्रह्म का पुत्र हूँ। मेरा नाम ब्रह्मदत्त है।" इतना सुनते ही वह महिला अत्यन्त हर्षित हुई। आनन्द उसकी आँखों से बाहर झाँकने लगा / वह उठी और उसके चरणों में गिर पड़ी और रोने लगी। कुमार का हृदय दया से भींग गया। 'देवी ! मत रो'-यह कह उसने उसे उठाया और पूछा- "देवी ! तुम कौन हो ?" उसने कहा-"आर्यपुत्र ! मैं तुम्हारे मामा पुष्पचूल राजा की लड़की हूँ। एक बार मैं अपने उद्यान के कुएं के पास वाली भूमि में खेल रही थी। नाट्योन्मत्त नाम का विद्याधर वहाँ आया और मुझे उठा यहाँ ले आया / यहाँ आए मुझे बहुत दिन हो गए हैं / मैं परिवार की विरहाग्नि में जल रही हूँ। आज तुम अचानक ही यहाँ आ गए। मेरे लिए यह अचिंतित स्वर्ण-वर्षा हुई है। अब तुम्हें देख कर मुझे जीने की आशा भी बंधी है।" कुमार ने कहा-"वह महाशत्रु कहाँ है ? मैं उसके बल की परीक्षा करना चाहता हूँ।" स्त्री ने कहा-"स्वामिन् ! उसने मुझे पठित सिद्ध शंकरी नाम की विद्या दी और कहा-इस विद्या के स्मरण मात्र से वह सखि, दास आदि का परिवार के रूप में उपस्थित होकर तुम्हारे आदेश का पालन करेगी। वह तुम्हारे पास आते हुए, शत्रुओं का
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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