________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 161 का अर्थ 'वीरासन आदि कठोर आसन करना' किया गया है। स्थानांग में काय-क्लेश के सात प्रकार निर्दिष्ट हैं (1) स्थान कायोत्सर्ग, (2) ऊकडू आसन, (3) प्रतिमा आसन, (4) वीरासन, (5) निषद्या, (6) दण्डायत आसन और (7) लगण्डशयनासन / ' औपपातिक में काय-क्लेश के अनेक प्रकार बतलाए गए हैं (1) स्थान कायोत्सर्ग, (6) आतापना, (2) ऊकडू आसन, (7) वस्त्र-त्याग, (3) प्रतिमा आसन, (8) अकण्डूयन-खाज न करना, (4) वीरासन, (9) अनिष्ठीवन-थूकने का त्याग और (5) निषद्या, (10) सर्वगात्र-परिकर्म-विभूषा का वर्जन / ' आचार्य वसुनन्दि के अनुसार आचाम्ल, निर्विकृति, एक-स्थान, उपवास, बेला आदि के द्वारा शरीर को कृश करना 'काय-क्लेश' है / यह व्याख्या उक्त व्याख्याओं से भिन्न है। वैसे तो उपवास आदि करने में काया को क्लेश होता है, किन्तु भोजन से सम्बन्धित अनशन, ऊतोदरी, वृत्ति-संक्षेप और रस परित्याग-इन चारों बाह्य-तपों से काय-क्लेश का लक्षण भिन्न होना चाहिए, इस दृष्टि से काय-क्लेश की व्याख्या उपवास-प्रधान न होकर अनासक्ति-प्रधान होनी चाहिए। शरीर के प्रति निर्ममत्व-भाव रखना तथा उसे प्राप्त करने के लिए आसन आदि साधना तथा उसकी साज-सज्जा व संवारने से उदासीन रहना----यह काय-क्लेश का मूलस्पर्शी अर्थ होना चाहिए। १-स्थानांग, 73554 / / २-औपपातिक, सूत्र 19 / / . ३-वसुनन्दि श्रावकाचार, श्लोक 351 : आयंबिल णिविवयडी एयट्ठाणं छट्ठमाइ खवणेहिं / जं कीरइ तणुतावं कायकिलेसो मुणेयवो // 21