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________________ 162 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन द्वितीय अध्ययन में जो परीषह बतलाए गए हैं, उनसे यह भिन्न है। काय-क्लेश स्वयं इच्छानुसार किया जाता है और परीषह समागत कष्ट होता है।' श्रुतसागर गणि के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में धूप में, शीत ऋतु में खुले स्थान में और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे सोना, नाना प्रकार की प्रतिमाएँ और आसन करना 'कायक्लेश' है। (6) प्रतिसंलीनता .. उत्तराध्ययन 308 में बाह्य-तप का छठा प्रकार 'संलीनता' बतलाया गया है और 30 / 28 में उसका नाम 'विविक्त-शयनासन' है / भगवती (25 / 7 / 802) में छठा प्रकार 'प्रतिसंलीनता' है। तस्वार्थ सूत्र (6 / 16) में 'विविक्त-शयनासन' बाह्य-तप का छठा प्रकार है। इस प्रकार कुछ ग्रन्थों में 'संलीनता' या 'प्रतिसंलीनता' और कुछ ग्रन्थों में 'विविक्त-शय्यासन' या 'विविक्त-शय्या' का प्रयोग मिलता है। किन्तु औपपातिक के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मूल शब्द 'प्रतिसंलीनता' है / 'विविक्त-शयनासन' उसी का एक अवान्तर भेद है। प्रतिसंलीनता चार प्रकार की होती है (1) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, (3) योग प्रतिसंलीनता और (2) कषाय प्रतिसंलीनता, (4) विविक्त-शयनासन-सेवन / प्रस्तुत अध्ययन में संलीनता की परिभाषा केवल विविक्त-शयनासन के रूप में की गई, यह आश्चर्य का विषय है। हो सकता है सूत्रकार इसी को महत्त्व देना चाहते हों। तत्त्वार्थ सूत्र आदि उत्तरवर्ती ग्रन्थों में भी इसी का अनुसरण हुआ है। विविक्तशयनासन का अर्थ मूल-पाठ में स्पष्ट है। मूलाराधना के अनुसार जहाँ शब्द, रस, गंध और स्पर्श के द्वारा चित्त विक्षेप नहीं होता, स्वाध्याय और ध्यान में व्याघात नहीं होता, वह विविक्त-शय्या है। जहाँ स्त्री, पुरुष और नपुंसक न हों, वह विविक्त-शय्या है। भले फिर उसके द्वार खुले हों या बंद, १-तत्त्वार्थ, 9 / 16, श्रुतसागरीय वृत्ति : यदृच्छया समागतः परीषहः, स्वयमेव कृतः कायक्लेशः ति परीषहकाय क्लेशयोर्विशेषः। २-वही, 9 / 19, श्रुतसागरीय वृत्ति / ३-औपपातिक, सूत्र 19: से किं तं पडिसलीणया ? पडिसलीणया चउविहा पण्णत्ता, तंजहा-इंदिअपडिसंलीणया कसायपडिसंलीणया जोगपडिसंलोणया विवित्तसयणासणसेवणया। ४-तत्वार्थ सूत्र, 9 / 19 : अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः।
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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