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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठ-भूमि जीव नहीं है। यद्यपि हिरण्यगर्भ देहधारी है, फिर भी वह परमात्मा, ब्रह्म कहलाएगा। क्योंकि परमात्मा का शिष्य होने के कारण वह उसी के समान ज्ञानी है।' ये सब साधन वैदिक नहीं हैं, किन्तु यह आरण्यक-काल में प्रचलित साधनों का संग्रह है / इन बारह साधनों में आठवाँ, नौवाँ और दसवाँ भाष्यकार के अनुसार निश्चित ही वैदिक है / छठा लौकिक है, पाँचवाँ और सातवाँ लौकिक भी है और वैदिक भी। पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा और ग्यारहवाँ आरण्यक सम्मत भी है और श्रामणिक (श्रमणों का) भी है। इन बारह साधनों में संन्यास सबसे उत्कृष्ट है। आचार्य सायण ने लिखा है कि पूर्वोक्त सत्य से लेकर मानस-उपासना तक के साधन तप हैं, फिर भी संन्यास की अपेक्षा वे अवर हैं--निकृष्ट हैं / यही बात तिरसठवें अनुवाक में कही गई है-'तस्मान्न्यासमेषां तपसामतिरिक्तमाहुः' / 5 आचार्य सायण ने लिखा है- "संन्यास परम पुरुषार्थ का अन्तरंग साधन है। इसलिए वह सत्य आदि तपों से अत्युत्कृष्ट है।" प्रजनन (सातवाँ), अग्नि (आठवाँ), अग्निहोत्र (नौवाँ) और यज्ञ (दसवाँ) ये श्रमणों द्वारा सम्मत नहीं हैं, इसकी संक्षिप्त चर्चा हम पहले प्रकरण में कर चुके हैं / संन्यास श्रमणों का सर्वोत्कृष्ट साधन है, यह भी बताया जा चुका है। 'घर में कान रहे' यह घोष वहीं हो सकता है, जहाँ संन्यास को सर्वोच्च साधन माना जाए। अब हम शेष साधनों पर विचार करना चाहेंगे। छद्म वेषधारी इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा- "राजर्षे ! पहले तुम विपुल यज्ञ करो, : श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन कराओ, दान दो फिर मुनि हो जाना।" १-तैत्तिरीयारण्यक, 10 // 62, सायण भाज्य, पृ० 766 : स च ब्रह्मा परो हि परमात्मरूपे हि / न तु पूवोक्तमतानुसारिण इव जीवः / यद्यप्यसौ हिरण्यगर्भो देहधारी तथापि परो हि परमात्मैव ब्रह्मा हिरण्यगर्भ इति वक्तुं शक्यते, तच्छिण्यत्वेन तत्समानज्ञानत्वात् / २-देखिये चौथा प्रकरण 'आत्म-विद्या क्षत्रियों की देन' शीर्षक / ३-तैत्तिरीयारण्यक, 10.62, पृ० 766 / ४-वही, 10 / 62, पृ० 766 : यानि पूर्वोक्तसत्यादीनि मानसान्तनि तान्येतानि तपांसि भवन्त्येन्व तथापि संन्यासमपेक्ष्यावराणि निकृष्टानि / ५-वही, 10 / 63, पृ० 774 / ६-वही, 10 // 63, पृ० 774 : यस्मात् परमपुरुषार्थस्यान्तरंग साधनं तस्मादेषां सत्यादीनां तपसां मध्ये संन्यास मतिरिक्त मत्युत्कृष्टं साधनं मनीषिण आहुः।
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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