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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 6 २-कर्मवाद और लेश्या 241. और उसकी चेतना दूसरे रंगों में रंग जाती है, जो बाहर में विलीन रहता है। सचाई यह है कि अपने को बाह्य में विलीन करने वाला हर जीव बाह्य से प्रभावित होता है और उसकी चेतना बाहर के रंगों से रंगीन रहती है। लेश्या इस रंगीन चेतना का ही एक परिणाम है और कर्म-बन्धन उसी का अनुगमन करता है। कम : चैतन्य पर प्रभाव जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन / इन दोनों में सीधा सम्बन्ध नहीं है / जीव लेश्या के माध्यम से ही पुद्गलों का आत्मीकरण करता है, इसलिए जब वह शुभ प्रवृत्ति में संलग्न रहता है, तब शुभ पुद्गल आत्मीकृत होते हैं, जो पुण्य कहलाते हैं और जब वह अशुभ प्रवृत्ति में संलग्न रहता है, तब अशुभ पुद्गल आत्मीकृत होते हैं, जो पाप कहलाते हैं / जब ये पुण्य-पाप विभक्त किए जाते हैं, तब इनकी आठ जातियाँ बन जाती हैं, जिन्हें आठ कर्म कहा गया है (1) ज्ञानावरण- इससे ज्ञान आवत होता है, इसलिए यह पाप है। (2) दर्शनावरण- इससे दर्शन आवत होता है, इसलिए यह पाप है। (3) मोहनीय-- इससे दृष्टि और चारित्र विकृत होते हैं, इसलिए यह पाप है ! (4) अन्तराय- इससे आत्मा का वीर्य प्रतिहत होता है, इसलिए यह पाप है। (5) वेदनीय-- यह सुख और दुःख की वेदना का हेतु बनता है, इसलिए यह पुण्य भी है और पाप भी है। (6) नाम- यह शुभ और अशुभ अभिव्यक्ति का हेतु बनता है, इसलिए यह पुण्य भी है और पाप भी है। (7) गोत्र- यह उच्च और नीच संयोगों का हेतु बनता है, इसलिए यह पुण्य भी है और पाप भी है। (8) आयुष्य- यह शुभ और अशुभ जीवन का हेतु बनना है, इसलिए यह पुण्य भी है और पाप भी है। जीव पुण्य या पाप नहीं है और पुद्गल भी पुण्य या पाप नहीं है। जीव और पुद्गल का संयोग होने पर जो स्थिति बनती है, वह पुण्य या पाप है। इन पुण्य या पाप कर्मों के द्वारा जीवों में विविध परिवर्तन होते रहते हैं / इस जगत् के नानात्व का कर्म-समूह सर्वोपरि कारण है। कर्मों के पुद्गल सूक्ष्म हैं। उनसे ऐसे रहस्यपूर्ण कार्य घटित होते हैं, जिनकी सामान्य-बुद्धि व्याख्या ही नहीं कर सकती या जिन्हें बहुत सारे लोग ईश्वर की लोला कह कर सन्तोष मानते हैं। यदि हम जीव और कर्म पुद्गलों की संयोगिक प्रक्रियाओं को गहराई से समझ लें तो हम सृष्टि की सहज व्याख्या
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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