________________ . उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन : "गोचराग्न में प्रविष्ट मुनि के लिए गृहस्थों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है। अतः गृहवास ही श्रेय है-मुनि ऐसा चिन्तन न करे।" जैन-धर्म की मूल मान्यता यह है कि अव्रत प्रेय है-बन्धन है और व्रत श्रेय हैमुक्ति है। सुव्रती मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त होता है, भले फिर वह भिक्षु हो या गृहस्थ / / --- "श्रद्धालु श्रावक गृहस्थ-सामायिक के अंगों का आचरण करे। दोनों पक्षों में किए जाने वाले पौषध को एक दिन-रात के लिए भी न छोड़े। __ "इस प्रकार शिक्षा से समापन्न सुव्रती मनुष्य गृहवास में रहता हुआ भी औदारिकशरीर से मुक्त होकर देवलोक में जाता है। "जो संवृत्त भिक्षु होता है, वह दोनों में से एक होता है-सब दुखों से मुक्त या महान् ऋद्धि वाला देव / " 3 इन श्लोकों की स्पष्ट ध्वनि है कि सुबती गृहस्थ व व्रत-संपन्न भिक्षु की श्रेष्ठ गति होती है। जब तक व्रत का पूर्ण उत्कर्ष नहीं होता, तब तक वह मरने के बाद स्वर्ग में जाता है और जब व्रत का पूर्ण उत्कर्ष हो जाता है, तब मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त होता है / भिक्षु की श्रेष्ठता जन्मना तो है ही नहीं, किन्तु वेश से भी नहीं है। उसकी श्रेष्ठता का एक मात्र हेतु व्रत या संयम है / इसी दृष्टि से कहा है-. ___ "कुछ भिक्षुओं से गृहस्थों का संयम प्रधान होता है, किन्तु साधुओं का संयम सब गृहस्थों से प्रधान होता है। "चीवर, चर्म, नग्नत्व, जटाधारीपन, संघाटी (उतरीय वस्त्र) और सिर मुंडाना-ये सब दुष्टशील वाले साधु की रक्षा नहीं करते। ___“भिक्षा से जीवन चलाने वाला भी यदि दुःशील हो तो वह नरक से नहीं छूटता।" भिक्षु का अर्थ ही व्रती है / अपूर्ण व्रती या व्रत की परिपूर्ण आराधना तक न पहुंचने वाले को स्वर्ग ही प्राप्त होता है, मोक्ष नहीं। मोक्ष उसी को प्राप्त होता है, जो व्रत को चरम आराधना तक पहुँच जाता है। ऐसा गृहस्थ के वेश में भी हो सकता है।५ वेश भले ही गृहस्थ का हो, आत्मिक-शुद्धि से जो इस स्थिति तक पहुंच जाता है, वह १-उत्तराध्ययन, 2029 / २-वही, 222 / ३-वही, 223-25 // ४-वही, // 20-22 / ५-नंदी, सूत्र 21: गिहिलिंगसिद्धा।