SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 226 खण्ड 1, प्रकरण : 6 1 -तत्त्वविद्या .. यह जगत् अनादि-अनन्त है / चेतन अचेतन से उत्पन्न नहीं है और अचेतन चेतन से उत्पन्न नहीं है / इसका अर्थ यह है कि जगत् अनादि-अनन्त है। यह व्याख्या द्रव्य-स्पर्शी नय के आधार पर की जा सकती है, किन्तु रूपान्तरस्पर्शी नय की व्याख्या इससे भिन्न होगी। उसके अनुसार यह जगत् सादि-सान्त भी है। इसका अर्थ यह है कि जगत् के घटक तत्त्व अनादि-अनन्त हैं और उनके रूप सांदि-सान्त हैं। जीव अनादि-अनन्त हैं, किन्तु एकेन्द्रिय जीव प्रवाह की दृष्टि से अनादि अनन्त हैं और व्यक्ति की दृष्टि से सादिसान्त हैं / ' इसी प्रकार अजीव भी अनादि-अनन्त हैं किन्तु परमाणु प्रवाह की अपेक्षा अनादि-अनन्त है और व्यक्ति की दृष्टि से सादि-सान्त है / जैन दार्शनिक इस सिद्धान्त में विश्वास नहीं करते कि असत् से सत् उत्पन्न होता है / इसका अर्थ यह है कि जगत् में नए सिरे से कुछ भी उत्सन्न नहीं होता / जो जितना है, वह उतना ही था और उतना ही रहेगा / यह मौलिक तत्त्व को बात है। रूमान्तरण की दृष्टि से असत् से सत् उत्सन्न होता भी है / जो एक दिन पहले असत् होता है, वह आज सत् हो जाता है और जो आज सत् होता है, वह कल फिर असत् हो सकता है। जिसे हम जगत् कहते हैं, उसकी सृष्टि का मूल यह रूपान्तरण हो है / जैन दार्शनिकों के अनुसार जगत् के घटक तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव / शेष सब इनका विस्तार है। संसार में जितने द्रव्य हैं, वे सब इन दा द्रव्यों के ही, भेद-उपभेद हैं / उनमें कुछ ऐसे हैं, जो हमारे लिए दृश्य हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो हमारे लिए दृश्य नहीं हैं / अजीव के पाँच प्रकार हैं अधर्मास्तिकाय- गतितत्त्व। अधर्मास्तिकाय- स्थितितत्व। ... " आकाशास्तिकाय- अवकाशतत्त्व। .. . ... .. काल परिवर्तन का हेतु। पुद्गला स्तिकाय- - संयोग-वियोगशील तत्त्व / मूर्त-अमूत .. ..... भारतीय तत्त्ववेत्ता तीन हजार वर्ष पहले से ही मूर्त और अमूर्त का विभाग मानते रहे हैं। शतपथ बाह्मण में लिखा है कि ब्रह्म के दो रूप हैं-मूर्त और अमूर्त / ' बृहदारण्यक 2 / 3 / 1 में भी यही बात मिलती है। पुराण-साहित्य में भी इस मान्यता की १-वही, 36 / 78-79 / २-वही, 36 / 12-13 / ३-शतपथ ब्राह्मग, 14 / 5 / 3 / 1 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy