________________ खण्ड 2, प्रकरणं : 1 कथानक संक्रमण - ऐसी अवस्था में क्या आनन्द, क्या क्रीड़ा, क्या मजा, क्या धन की खोज ? मुझे पुत्र तथा दारा से क्या प्रयोजन ? राजन् ! मैं बन्धन से मुक्त हूँ // 13 // यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मृत्यु मुझे नहीं भूलेगी। जब मृत्यु सिर पर हो तो क्या मजा और क्या धन की खोज // 14 // हे राजन् ! चाण्डाल-योनि आदमियों में निकृष्ट और अधम जाति है। हम अपने पाप-कर्मों के ही कारण पहले चाण्डाल-योनि में उत्पन्न हुए // 15 // अवन्ती में चाण्डाल हुए, नेरअरा के तट पर मृग, नर्मदा के तट पर (?) बाज और आज वही ब्राह्मण-क्षत्रिय // 16 // ] इस प्रकार पूर्व समय की निकृष्ट योनियों का प्रकाशन कर अब इस जन्म के भी आयु-संस्कारों के सीमित होने की बात कह पुण्य की प्रेरणा करते हुए चार गाथाएँ कहीं [अल्पायु प्राणी को ( मृत्यु के पास ) ले जाती है। जरा-प्राप्त के लिए रक्षा का कोई उपाय नहीं है.। हे पञ्चाल ! मेरा यह कहना कर-ऐसे कर्म जिनसे दुःख उत्पन्न हो मत कर ॥१७॥''''''ऐसे कर्म जिनका फल दुःख हो मत कर ॥१८॥"ऐसे कर्म जो चित्त-मैल रूपी धूल से ढंके हों मत कर // 16 // अलायु प्राणी को (मृत्यु के पास) ले जाती है / जरा प्राणी के वर्ण का नाश कर देती है / हे पञ्चाल ! मेरा यह कहना करऐसे कर्म मत कर जो नरक में उत्पत्ति का कारण हो // 20 // ] बोधिसत्व के ऐसा कहते रहने पर राजा ने प्रसन्न हो तीन गाथायें कहीं [हे ऋषि ! जिस तरह से तू कहता है उसी तरह से तेरा यह कहना निश्चयात्मक रूप से सत्य है किन्तु हे भिक्षु ! मेरे पास बहुत काम-भोग ( के साधन ) हैं और उन्हें मेरे जैसा नहीं छोड़ सकता // 21 // :- जिस तरह से दलदल में फंसा हुआ हाथी स्थल दिखाई देने पर भी वहाँ नहीं जा सकता उसी प्रकार मैं भी काम-भोग के दलदल में फंसा हुआ भिक्षु के मार्ग को नहीं ग्रहण कर सकता // 22 // ] [जिस प्रकार माता-पिता पुत्र के सुख की कामना से उसका अनुशासन करते हैं, / उसी प्रकार. भन्ते ! आप मुझे उपदेश दें जिससे मैं आगे सुखी होऊँ // 23 // ] तब उसे बोधिसत्व ने कहा [हे राजन् ! यदि तू इन मानवी काम-भोगों को छोड़ने का साहस नहीं कर सकता तो यह कर कि धार्मिक-कर लिया जाय और तेरे राष्ट्र में अधार्मिक-काम न हो // 24 // तेरे दूत चारों दिशाओं में जाकर श्रमण-ब्राह्मणों को निमन्त्रण देकर लाये / तू अन्नपान, वस्त्र, शयनासन तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं से उनकी सेवा कर // 25 // . प्रसन्नतापूर्वक श्रमण-ब्राह्मणों को अन्न-पान से सन्तुष्ट कर। यथासामर्थ्य दान देने और खाने वाला निन्दा-रहित हो स्वर्ग-लोक को प्राप्त होता है // 26 //