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________________ 172 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / है-जैसे वायु कुपित है। जहाँ 'वायु कुपित है'-ऐपा निर्देश किया जाता है, उसका अर्थ यह नहीं है कि वहाँ पित्त और श्लेष्मा नहीं हैं। इसी प्रकार मन की एकाग्रता ध्यान है-यह परिभाषा भी प्रधानता की दृष्टि से है / जैसे मन की एकाग्रता व निरोध मानसिक ध्यान कहलाता है, वैसे ही 'मेरा शरीर अकम्पित हो'-यह संकल्प कर जो स्थिर-काय बनता है, वह कायिक ध्यान है / इसी प्रकार संकल्प पूर्वक अकथनीय भाषा का वर्जन किया जाता है, वह वाचिक ध्यान है। जहाँ मन एकाग्र व अपने लक्ष्य के प्रति व्याप्त होता है तथा शरीर और वाणी भी उसी लक्ष्य के प्रति व्याप्त होते हैं, वहाँ मानसिक, कायिक और वाचिक-ये तीनों ध्यान एक साथ हो जाते हैं। जहाँ कायिक या वाचिक ध्यान होता है, वहाँ मानसिक ध्यान भी होता है, किन्तु वहाँ उसकी प्रधानता नहीं होती, इसलिए वह मानसिक ही कहलाता है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि मन सहित वाणी और काया का व्यापार होता है, उसका नाम भावक्रिया है और जो भाव-क्रिया है, वह ध्यान है।५ वाचिक या कायिक ध्यान के साथ मन संलग्न होता है, फिर भी उनका विषय एक होता है, इसलिए उसे अनेकान नहीं कहा जा सकता। वह व्यक्ति जो मन से ध्यान करता है, वही वाणी से बोलता है और उसी में उसकी काया संलग्न होती है। यह उनकी अखण्डता या एकाग्रता है। __ध्यान में शरीर, वाणी और मन का निरोध ही नहीं होता, प्रवृत्ति भी होती है / सहज ही प्रश्न होता है कि स्वाध्याय में मन की एकाग्रता होती है और ध्यान में भी। उस स्थिति में स्वाध्याय और ध्यान ये दो क्यों ? स्वाध्याय में मन की एकाग्रता होती है किन्तु वह घनीभूत नहीं होती इसलिए उसे ध्यान. की कोटि में नहीं रखा जा सकता। ध्यान चित्त की घनीभूत अवस्था है। स्वल्प निद्रा और प्रगाढ़ निद्रा में शुभ या अशुभ ध्यान नहीं होता इसी प्रकार नवोत्पन्न शिशु तथा जिनका चित मूच्छित, अव्यक्त, मदिरापान से उन्मत्त, विष आदि से प्रभावित है, उनके भी ध्यान नहीं होता। ध्यान का अर्थ शून्यता या अभाव नहीं है / अपने आलम्बन में गाढ़ रूप से संलग्न होने के कारण जो निष्प्रक्रम्प हो जाता है, वही चित्त ध्यान कहलाता है। मृदु, अव्यक्त और अनवस्थित चित्त को ध्यान नहीं कहा जा १-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1468,1469 / २-वही, गाथा 1474 / ३-वही, गाथा 1476,1477 / ४-वही, गाथा 1478 / ५-वही, गाथा 1486 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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