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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 173 सकता।' ध्यान चेतना की वह अवस्था है, जो अपने आलम्बन के प्रति एकाग्न होती है अथवा बाह्य-शून्यता होने पर भी आत्मा के प्रति जागरूकता अबाधित रहती है / इसीलिए कहा गया है "जो व्यवहार के प्रति सुषप्त है, वह आत्मा के प्रति जागरूक है।" ____उक्त विवरण से फलित होता है कि चिन्तन-शून्यता ध्यान नहीं और वह चिन्तन भी ध्यान नहीं है, जो अनेकाग्र है। एकाग्र चिन्तन ध्यान है, भाव-क्रिया ध्यान है और चेतना के व्यापक प्रकाश में चित्त विलीन हो जाता है, वह भी ध्यान है। इन परिभाषाओं के आधार पर जाना जा सकता है कि जैन आचार्य जडतामय शून्यता व चेतना को मूछी को ध्यान कहना इष्ट नहीं मानते थे। ध्यान के प्रकार एकाग्र चिन्तन को ध्यान कहा जाता है, इस व्युत्पत्ति के आधार पर उसके चार प्रकार होते हैं--(१) आतं, (2) रौद्र, (:) धर्म्य और (4) शुक्ल / (1) आर्त्त-ध्यान-चेतना की अरति या वेदनामय एकाग्र परिणति को आर्त्त-ध्यान कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं (क) कोई पुरुष अमनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर उस (अमनोज्ञ विषय) के वियोग का चिन्तन करता है-यह पहला प्रकार है। (ख) कोई पुरुष मनोज्ञ संयोग से संयुक्त है, वह उस ( मनोज्ञ विषय ) के वियोग न होने का चिन्तन करता है-यह दूसरा प्रकार है। . (ग) कोई पुरुष आतंक- सद्योघाती रोग के संयोग से संयुक्त होने पर उसके वियोग का चिन्तन करता है-यह तीसरा प्रकार है। (घ) कोई पुरुष प्रीतिकर काम-भोग के संयोग से संयुक्त है, वह उसके वियोग न होने का चिन्तन करता है—यह चौथा प्रकार है। आत-ध्यान के चार लक्षण हैं (क) आक्रन्द करना, (ख) शोक करना, (ग) आँसू बहाना और (घ) विलाप करना। १-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1481-1483 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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