________________ 174 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (2) रौद्र-ध्यान-चेतना की क्रूरतामय एकाग्र परिणति को 'रौद्र-ध्यान' कहा जाता है / उसके चार प्रकार हैं (क) हिंसानुबन्धी- जिसमें हिंसा का अनुबन्ध---हिंसा में सतत प्रवर्तन हो / (ख) मृषानुबन्धी- जिसमें मृषा का अनुबन्ध-मृपा में सतत प्रवर्तन हो। (ग) स्तेनानुबन्धी---- जिस में चोरी का अनुबन्ध---चोरी में सतत प्रवर्तन हो / (घ) संरक्षणानुबन्धी- जिसमें विषय के साधनों के संरक्षण का अनुबन्ध--- विषय के साधनों में सतत प्रवर्तन हो। ' रौद्र-ध्यान के चार लक्षण हैं (क) अनुपरत दोष- प्रायः हिंसा आदि से उपरत न होना / (ख) बहुदोष- हिंसा आदि की विविध प्रवृत्तियों में संलग्न रहना। (ग) अज्ञानदोष- अज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृत्त होना। (घ) आमरणान्तदोष- मरणान्त तक हिंसा आदि करने का अनुताप न होता। ये दोनों ध्यान पापाश्रव के हेतु हैं, इसीलिए इन्हें 'अप्रशस्त' ध्यान कहा जाता है। इन दोनों को एकाग्रता की दृष्टि से ध्यान की कोटि में रखा गया है, किन्तु साधना की दृष्टि से आर्त और रौद्र परिणतिमय एकाग्रता विघ्न ही है / मोक्ष के हेतुभूत ध्यान दो ही हैं--(१) धर्म्य और (2) शुक्ल / इनसे आश्रव का निरोध होता है, इसलिए इन्हें 'प्रशस्त ध्यान' कहा जाता है / (3) धर्म्य-ध्यान-वस्तु-धर्म या सत्य की गवेषणा में परिणत चेतना की एकाग्रता को 'धर्म्य-ध्यान' कहा जाता है / इसके चार प्रकार हैं (1) आज्ञा-विचय- प्रवचन के निर्णय में संलग्न चित्त / .. (2) अपाय-विचय- दोषों के निर्णय में संलग्न चित्त / (3) विपाक-विचय- कर्म फलों के निर्णय में संलग्न चित्त / (4) संस्थान-विचय- विविध पदार्थो के आकृति-निर्णय में संलग्न चित्त / धर्म्य ध्यान के चार लक्षण हैं (क) आज्ञा-रुचि- प्रवचन में श्रद्धा होना। (ख) निसर्ग-रुचि-- सहज ही सत्य में श्रद्धा होना / (ग) सूत्र-रुचि- सूत्र पढ़ने के द्वारा श्रद्धा उत्पन्न होना / (घ) अवगाढ़-रुचि- विस्तार से सत्य की उपलब्धि होना।