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________________ सम्पादकीय इस ग्रन्थ में उत्तराध्ययन का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत है। श्रमण और वैदिक धाराओं के तुलनात्मक अध्ययन का अवकाश जिन आगमों में है, उनमें उत्तराध्ययन प्रमुख है / समसामयिक दर्शनों में वैचारिक विसदृशता होने पर भी भाषा-प्रयोग, शैली आदि तत्त्व सदृश होते हैं। पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के रूप में वे एक-दूसरे से संबद्ध होते हैं / अतः उनका तुलनात्मक अध्ययन किए बिना शाब्दिक व आर्थिक बोध सम्यक् नहीं होता / प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन-तत्त्व-विद्या, साधना-पद्धति आदि विषय चर्चित हुए हैं तथा श्रमण और वैदिक संस्कृति के व्यावर्तक तत्त्वों का ऐतिहासिक व सैद्धान्तिक विश्लेषण हुआ है / वैदिक, जैन व बौद्ध तीनों धाराओं में प्राप्त सदृश कथाओं के मूल स्रोत को खोजने की चेष्टा की गई है। उस समय की इन तीनों महान् धाराओं में एक-दूसरी धारा का परस्पर मिश्रण हुआ है, प्रभाव पड़ा है। किसी एक धारा हो ने दूसरी को प्रभावित किया और वह दूसरी धाराओं से प्रभावित नहीं हुई, ऐसा मानना सत्य की कक्षा में समाहित नहीं हो सकता। श्रमण-परम्परा वैदिक-परम्परा से उद्भूत हो या वैदिक-परम्परा श्रमण-परम्परा से उद्भूत हो तो उसका ऐतिहासिक मूल्य बदल सकता है किन्तु गुणात्मक मूल्य नहीं बदलता। उद्भूत शाखा की गुणात्मक सत्ता अपने मूल से अधिक विकासशील हो सकती है। समय-समय पर कुछ विद्वानों ने जन-धर्म को वैदिक-धर्म की शाखा माना है। उस अभिमत के पीछे उनका कोई दुराग्रह रहा है, ऐसा कहना मुझे उचित नहीं लगता, किन्तु यह कहने में संकोच अनुभव नहीं होता कि उन्होंने वैसा निर्णय स्वल्प सामग्री के आधार पर किया था। डॉ० हर्मन जेकोबी आदि विद्वान उस अभिमत का निरसन कर चुके हैं। प्राप्त सामग्री के आधार पर हम भी इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि वैदिक और श्रमण धाराओं में जन्य-जनक का पौर्वापर्य खोजने की अपेक्षा उनके स्वतन्त्र अस्तित्व और विकास की खोज अधिक महत्त्वपूर्ण है। . इस ग्रन्थ में तीनों परम्पराओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत है। उसका मनन करने से यह प्रतीति होती है कि पारम्परिक भेदानुभूति के उपरान्त भी धर्म की अभेदानुभूति का स्रोत सब धाराओं में समान रूप से प्रवाहित रहा है। जो लोग धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन नहीं करते, उनका दृष्टिकोण संकीर्ण रहता है। आग्रह और संकीर्ण-दृष्टि की परिसमाप्ति के लिए धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन का बहुत ही महत्त्व है।
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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