________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 कथानक संक्रमण 305 ख. अतीत कथा - पूर्व समय अवन्ति राष्ट्र में उज्जेनी में अवन्ति-महाराज राज्य करते थे। उस समय उज्जेनी के बाहर चाण्डालग्राम था। बोधिसत्व ने वहाँ जन्म ग्रहण किया। एक दूसरे प्राणी ने भी उसकी मासी का पुत्र हो कर जन्म ग्रहण किया। उनमें से एक का नाम चित्त था, दूसरे का सम्भूत / उन दोनों ने बड़े होकर चाण्डालवंश धोपन (?) नाम का सीखा। एक दिन उज्जैनी-नगर-द्वार पर शिल्प दिखाने की इच्छा से एक ने उत्तरद्वार पर शिल्प दिखाया, दूसरे ने पूर्व-द्वार पर / ___ उस नगर में दो दुष्ट-मङ्गलिकायें थीं-एक सेठ की लड़की, दूसरी पुरोहित की लड़की। उन दोनों ने बहुत-सा खाद्य-भोज्य लिया और उद्यान-क्रीड़ा के लिए जाने की इच्छा से एक उत्तर-द्वार से निकली तथा दूसरी पूर्व-द्वार से। उन्होंने उन चाण्डाल-पुत्रों को शिल्प दिखाते देखा तो पूछा-ये कौन हैं ? "चाण्डाल-पुत्र / " उन्होंने सुगन्धित जल से आँखें धोई और वहीं से वापस हो गई-न देखने योग्य देखा। जनता ने उन दोनों को पीट कर बहुत पीड़ा पहुँचाई—"रे दुष्ट चाण्डालो ! तुम्हारे कारण हमें मुफ्त की शराब और भोजन नहीं मिला।" जब उन्हें होश आया तो दोनों एक दूसरे के पास गये और एक जगह मिल कर एक दूसरे को दुःख-समाचार कहा और रोये-पीटे। तब उन्होंने सोचा-क्या करें ? तब निश्चय किया- "यह दुःख हमें अपनी 'जाति' के कारण हुआ। हम चाण्डाल-कर्म न कर सकेंगे। 'जाति' छिपाकर ब्राह्मण-विद्यार्थी बन तक्षशिला जा कर शिल्प सीखेंगे / " वे तक्षशिला पहुँचे और धर्म-शिष्य बन कर प्रसिद्ध आचार्य के पास विद्या ग्रहण करने लगे / जम्बूद्वीप में दो 'चाण्डाल' जाति छिपा कर विद्या ग्रहण कर रहे हैं. यह बात कही-सुनी जाने लगी। उन दोनों में से चित्त पण्डित का विद्या-ग्रहण समाप्त हो गया था, सम्भूत का अभी नहीं। एक दिन एक ग्रामवासी ने आचार्य को पाठ करने के लिए निमन्त्रण दिया। उसी दिन रात को वर्षा होकर मार्ग के कन्दरा आदि भर गये। आचार्य ने प्रातःकाल ही चित्त पण्डित को बुलवा कर कहा-"तात ! मैं न जा सकूँगा। तू विद्यार्थियों को साथ ले जा और मङ्गल-पाठ कर अपना हिस्सा खाकर हमारा हिस्सा ले आना।" वह 'अच्छा' कह विद्यार्थियों को साथ लेकर गया। जब तक ब्रह्मचारी-गण स्नान करें तथा मुँह धोयें तब तक आदमियों ने ठंडी होने के लिए खीर परोस कर रख दी। वह अभी ठंडी नहीं हुई थी तभी ब्रह्मचारी आकर बैठ गये। आदमियों ने 'दक्षिणोदक' दे उनके सामने थालियाँ रखीं / सम्भूत ने एकदम मूठ की तरह खीर को ठंडी समझ खीर-पिंड लेकर मुँह मे डाल लिया। उसका मुँह ऐसे जलने लगा मानो लोहे का गर्म गोला मुँह में चला गया हो। वह काँप गया और होश ठिकाने न रख सकने के कारण चित्त पण्डित की ओर देख चाण्डाल-भाषा में बोल पड़ा.-"अरे ! ऐसा है !" उसने भी उसी प्रकार ध्यान न रख