________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 6. २-कर्मवाद और लेश्या 245 योगी की कर्म-जाति 'अशुक्ल-अकृष्ण' होती है। शेष तीन कर्म-जातियाँ सब जीवों में होती हैं।' उनका कर्म कृष्ण होता है, जिनका चित्त दोष-कलुषित या क्रूर होता है / पीड़ा और अनुग्रह दोनों विद्याओं से मिश्रित कर्म 'शुक्ल-कृष्ण' कहलाता है। ये बाह्यसाधनों के द्वारा साध्य होते हैं। तपस्या, स्वाध्याय और ध्यान में निरत लोगों के कर्म केवल मन के अधीन होते हैं / उनमें बाह्य साधनों की अपेक्षा नहीं होती और न किसी को पीड़ा दी जाती है, इसलिए इस कर्म 'शुक्ल' कहा जाता है / जो पुण्य के फल की भी इच्छा नहीं करते, उन क्षीण क्लेश चरमदेह योगियों के अशुक्ल-अकृष्ण कर्म होता है। ___ श्वेताश्वतर अनिषद् में प्रकृति को लोहित, शुक्ल और कृष्ण कहा गया है। सांख्य कौमुदी के अनुसार रजोगुण से मन मोह-रञ्जित होता है, इसलिए वह लोहित है। सत्त्वगुण से मन मल-रहित होता है, इसलिए वह शुक्ल है। स्वर-विज्ञान में भी यह बताया गया है कि विभिन्न तत्त्वों के विभिन्न वर्ण प्राणियों को प्रभावित करते हैं। उनके अनुसार मूलतः प्राणतत्त्व एक है / अणुओं के न्यूनाधिक वेग या कम्पन के अनुसार उसके पाँच विभाग होते हैं / उनके नाम, रंग, आकार आदि इस प्रकार हैं नाम वेग रंग आकार रस या स्वाद - (1) पृथ्वी अल्पतर पीला चतुष्कोण मधुर (2) जल .. अल्प सफेद या बैंगनी अर्द्धचन्द्राकार कसैला (3) तेजस् तीव्र त्रिकोण चरपरा (4) वायु तीव्रतर नीला या गोल खट्टा आसमानी (5) आकाश तीव्रतम काला या अनेकविन्दु - कड़वा नीलाभ गोल या ( सर्ववर्णक आकार शून्य मिश्रित रंग) - १-पातञ्जल योगसूत्र, 47 / २-वही, 417 भाज्य। ३-श्वेताश्वतर उपनिषद्, 4 / 5 : अजा मेकां लोहितशुक्लकृष्णां, बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः / अजो ह्य को जुषमाणोऽनुशेते, जहात्थेनां भुक्तभोगामजोऽन्यः // ४-सांख्यकौमुदी, पृ० 200 / ५-शिवस्वरोदय, भाषा टीका, श्लोक 156, पृ० 42 : आपः श्वेता क्षितिः पीता, रक्तवर्णो हुताशनः / मारतो नीलजीभूतः, आकाशः सर्ववर्णकः //