________________ 462 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एवं जीवस्स लक्खणं // 28 // 11 // 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप, वीर्य और उपभोग–ये जीव के लक्षण हैं।' 15. पुद्गल (28 / 12) सहन्धयारउज्जोओ पहा छायातवे इ वा / वण्णरसगन्धफासा पुगलाणं तु लक्खणं // 'शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श-ये . पुद्गल के लक्षण हैं।' 16. सम्यक्त्व (28 / 15) तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं / भावेणं सद्दहन्तस्स सम्मत्तं तं वियाहियं // ___ 'इन ( जीव, अजीव आदि नौ ) तथ्य-भावों के सद्भाव ( वास्तविक अस्तित्व ) के निरुपण में जो अन्तःकरण से श्रद्धा करता है, उसे सम्यक्त्व होता है। उस अन्तःकरण की श्रद्धा को ही भगवान् ने सम्यक्त्व कहा है।' 17. निसर्ग-रुचि (28 / 17,18) . भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च / सहसम्मुइयासवसंवरो य रोएइ / उ निसग्गो // 28 // 17 // 'जो परोपदेश के बिना केवल अपनी आत्मा से उपजे हुए भूतार्थ ( यथार्थ ज्ञान ) से जीव, अजीव, पुण्य, पाप को जानता है और जो आश्रव और संवर पर श्रद्धा करता है, वह निसर्ग-रुचि है।' जो जिण दिटे भावे चउविहे सद्दहाइ सयमेव / एमेव नऽन्नह ति य निसग्गरुइ त्ति नायव्वो // 28 // 18 // 'जो जिनेन्द्र द्वारा दृष्ट तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विशेषित पदार्थों पर स्वयं ही—'यह ऐसा ही है अन्यथा नहीं है-ऐसी श्रद्धा रखता है, उसे निसर्ग-रुचि वाला जानना चाहिए।' 18. उपदेश-रुचि (28 / 19) एए चेव उ भावे उवइटे जो परेण सद्दहई / छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुइ ति नायव्वो॥ _ 'जो दूसरों-छद्मस्थ या जिनके द्वारा उपदेश प्राप्त कर, इन भावों पर श्रद्धा करता है, उसे उपदेश रुचि-वाला जानना चाहिए।' भूयत्थणाहिक