________________ 178 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन रूपस्थ ध्यान में 'अर्हत्' के रूप (प्रतिमा) का आलम्बन लिया जाता है। वीतराग का चिन्तन करने वाला वीतराग हो जाता है और रोगी का चिन्तन करने वाला रोगी।' इसीलिए रूपस्थ धयान का आलम्वन वीतराग का रूप होता है। पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ-इन तीनों ध्यानों में आत्मा से भिन्न वस्तुओंपौद्गलिक द्रव्यों का आलम्बन लिया जाता है, इसलिए ये तीनों सालम्बन ध्यान के प्रकार हैं। रूपातीत ध्यान का आलम्बन अमूर्त-प्रात्मा का चिदानन्दमय स्वरूप होता है। इसमें ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता होती है / इस एकीकरण को 'समरसी-भाव' कहा जाता है / यह निरालम्बन ध्यान है / इसे ध्यान मानने का आधार निश्चय-नय है। प्रारम्भ में सालम्बन ध्यान का अभ्यास किया जाता है। इसमें एक स्थूल आलम्बन होता है, अतः इससे ध्यान के अभ्यास में सुविधा मिलती है। जब इसका अभ्यास परिपक्व हो जाता है तब निरालम्बन ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। जो व्यक्ति सालम्बन ध्यान का अभ्यास किए बिना सीधा निरालम्बन ध्यान करना चाहता है, वह वैचारिक पाकुलता से घिर जाता है। इसीलिए आचार्यों ने चेताया कि पहले सालम्बन ध्यान का अभ्यास करो। वह सध जाए तब उसे छोड़ दो, निरालम्बन ध्यान के अभ्यास में लग जाओ।' ध्यान के अभ्यास का यह क्रम प्राय: सर्वसम्मत रहा है-स्थूल से सूक्ष्म, सविकल्प से निवर्किल्प और सालम्बन से निरालम्बन होना चाहिए। ध्यान की मर्यादाएँ ___ ध्यान करने की कुछ मर्यादाएँ हैं / उन्हें समझ लेने पर ही ध्यान करना सुलभ होता है / सभी ध्यान-शास्त्रों में न्यूनाधिक रूप से उनको चर्चा प्राप्त है। जैन-आचार्यों ने भी उनके विषय में अपना अभिमत प्रदर्शित किया है। ध्यानशतक में ध्यान से सम्बन्धित बारह विषयों पर विचार किया गया है। वे (1) भावना, (2) प्रदेश, (3) काल, (4) प्रासन, (5) आलम्बन, (6) क्रम, (7) ध्येय, (8) ध्याता, (6) अनुप्रेक्षा, (10) लेश्या, (11) लिङ्ग और (12) फल / ' पहले हम इन विषयों के माध्यम से धर्म्य-ध्यान पर विचार करेंगे। (1) भावना- ध्यान की योग्यता उसी व्यक्ति को प्राप्त होती है, जो पहले भावना का अभ्यास कर चुकता है / इस प्रसंग में चार भावनाएं उल्लेखनीय हैं १-योगशास्त्र, 9 / 13 / २-ज्ञानसार, 37: योगशास्त्र, 105 / ३-ध्यानशतक, 28,29 /