________________ 168 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन (साधु का वैयावृत्त्य (10) समनोज्ञ का वैयावृत्त्य (समान सामाचारी वाले तथा एक मण्डली में भोजन करने वाले साधु 'समनोज्ञ' कहलाते हैं / ') इस वर्गीकरण में स्थविर और साधर्मिक-ये दो प्रकार नहीं हैं। उनके स्थान पर साधु और समनोज्ञ-ये दो प्रकार हैं / गण और कुल की भाँति संघ का अर्थ भी साधुपरक ही होना चाहिए। ये दसों प्रकार केवल साधु-समूह के विविध पदों या रूपों से सम्बद्ध हैं। __ वैयावृत्त्य (सेवा) का फल तोर्थङ्कर-पद की प्राप्ति बतलाया गया है / 2 व्यावहारिक सेवा ही तीर्थ को संगठित कर सकती है / इस दृष्टि से भी इसका बहुत महत्त्व है / (4) स्वाध्याय स्वाध्याय आभ्यन्तर-तप का चौथा प्रकार है। उसके पाँच भेद हैं-(१) वाचना, (2) प्रच्छना, (3) परिवर्तना, (4) अनुप्रेक्षा और (5) धर्मकथा / 3. तत्त्वार्थ सूत्र (6 / 25) में इनका क्रम और एक नाम भी भिन्न हैं-(१) वाचना, (2) प्रच्छता, (3) अनुप्रेक्षा, (4) आम्नाय और (5) धर्मोपदेश / ___ इनमें परिवर्तना के स्थान में आम्नाय है / आम्नाय का अर्थ है 'शुद्ध उच्चारण पूर्वक बार-बार पाठ करना / परिवर्तना या आम्नाय को अनुप्रेक्षा से पहले रखना अधिक उचित लगता है। आचार्य शिष्यों को पढ़ाते हैं-यह 'वाचना' है / पढ़ते समय या पढ़ने के बाद शिष्य के मन में जो जिज्ञासाएं उत्पन्न होती हैं, उन्हें वह आचार्य के सामने प्रस्तुत करता हैयह 'प्रच्छना' है / आचार्य से प्राप्त श्रुतः को याद रखने के लिए वह बार-बार उसका पाठ करता है-यह 'परिवर्तना' है। परिचित श्रुत का मर्म समझने के लिए वह उसका पर्यालोचन करता है-यह 'अनुप्रेक्षा' है। पठित, परिचित और पर्यालोचित श्रुत का वह उपदेश करता है—यह 'धर्मकथा' है। इस क्रम में परिवर्तना का स्थान अनुप्रेक्षा से पहले प्राप्त होता है। १-तत्त्वाथे, 9 / 24 भाज्यानुसारि टीका : द्वादशविधसम्भोगमाजः समनोज्ञानदर्शनचारित्राणि मनोज्ञानि सह मनोजेः समनोज्ञाः। २-उत्तराध्ययन, 35143 / ३-देखिए-उत्तराध्ययन के टिप्पण, 29 / 18 का टिप्पण / ४-तत्त्वार्थ, 9 / 25, श्रुतसागरीय वृत्ति : अष्टस्यानोच्चार विशेषेण यच्छुद्धं घोषणं पुनः पुनः परिवर्तनं स आम्नाय कथ्यते /