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________________ 208 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन महर्षि कणाद के अभिमत में धर्म से अभ्युदय और निःश्रेयस् दोनों सधते हैं।' जैन आचार्य भी इस मान्यता का समय-समय पर समर्थन करते रहे हैं प्राज्यं राज्यं सुभगदयिता नन्दना नन्दनानां / रम्यं रूपं सरसकविताचातुरी सुस्वरत्वम् // नीरोगत्वं गुणपरिचयः सजनत्वं सुबुद्धिः / किन्नु नमः फलपरिणति धर्मकल्पद्रुमस्य // किन्तु वास्तविक दृष्टि से धर्म अभ्युदय का प्रत्यक्ष हेतु नहीं है। वह प्रत्यक्ष हेतु निःश्रेयस् का ही है। अभ्युदय उसका प्रासंगिक परिणाम है। धर्म ऐहिक या पारलौकिक अभ्युदय के लिए नहीं है। उसका मुख्य परिणाम हैआत्मा की पवित्रता / पवित्रता की दृष्टि से धर्म ऐहिक भी है और पारलौकिक भी। पूर्व-चर्चित विषय को निष्कर्ष की भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं कि पौद्गलिक अभ्युदय की दृष्टि से धर्म इहलौकिक भी नहीं है और पारलौकिक भी नहीं है। आत्मोदय की दृष्टि से वह इहलौकिक भी है और पारलौकिक भी। धर्म के परिणाम की चर्चा के प्रसंग में परलोक शब्द भविष्य के अर्थ में रूढ़ हो गया है। धर्म से वर्तमान शुद्ध होता है और वह शुद्धि भविष्य को प्रभावित करती है। अधर्म से वर्तमान अशुद्ध बनता है और वह अशुद्धि भविष्य को प्रभावित करती है। जब अरिष्टनेमि को पता चला कि मेरे लिए निरीह पशुओं का वध किया जा रहा है, तब उन्होंने कहा-"यह कार्य मेरे परलोक में कल्याण-कर नहीं होगा।"५ इस प्रकरण में परलोक शब्द भविष्य के अर्थ में रूढ़ है। १-वैशेषिक दर्शन, अध्याय 1, आह्निक 1, सूत्र 2 : यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः / २-शान्तसुधारस, 10 / 7 / ३-पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 220-221 : रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य / आस्रवति यत्तु पुण्यं, शुभोपयोगोऽयमपराधः // एकस्मिन् समवायाद्, अत्यन्तविरुद्धकार्ययोरपि हि / इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमितः // ४-उत्तराध्ययन, 8 / 2017 / 21 / ५-वही, 22 / 19 : जइ मज्झ कारणा एए, हम्मिहिंति बहू जिया। न मे एयं तु निस्सेसं, परलोगे भविस्सई //
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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