________________ 74 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / __“जो संवृत-भिक्षु होता है, वह दोनों में से एक होता है-सब दुःखों से मुक्त या महान् ऋद्धि वाला देव। ___ "देवताओं के आवास क्रमशः उत्तम, मोह-रहित, द्यु तिमान् और देवों से आकीर्ण होते हैं / उनमें रहने वाले देव यशस्वी, दीर्घायु, ऋद्धिमान्, दीप्तिमान्, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, अभी उत्पन्न हुए हों-ऐसी कान्ति वाले और सूर्य के समान अति-तेजस्वी होते है।" ___"देव और नरक-योनि में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक एक-एक जन्म-ग्रहण तक वहाँ रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर / " 2 छत्तीसर्व अध्ययन में देव-जाति के प्रकारों का निरूपण है। नरक ( =नरग या नरय या निरय) का प्रयोग सतरह बार हुआ है। उन्नीसर्व अध्ययन में नारकीय वेदनाओं का विशद वर्णन है / ' नारकीय जीवों का निरूपण छत्तीसवें अध्ययन में हुआ है। ___कुछ श्रमण स्वर्ग और नरक में विश्वास नहीं करते थे। इस प्रसंग में अजितकेशकम्बल का उच्छेदवाद उल्लेखनीय है / संजयवेलटिठपुत्त भी इस विषय में कोई निश्चित मत नहीं रखता था / ६-निर्वाण __ वैदिक यज्ञ-संस्था में पारलौकिक-जीवन का महत्त्वपूर्ण संस्थान स्वर्ग है। निर्वाण का सिद्धान्त उन्हें मान्य नहीं था / उपनिषदों में वह स्थिर हुआ है। श्रमण-परम्परा आरम्भ से ही निर्वाणवादी रही है। श्रीमद्भागवत में भगवान् ऋषभ को मोक्ष-धर्म की अपेक्षा से ही वासुदेव का अवतार कहा गया है। भगवान् बुद्ध ने वैदिक-परम्परा से अपने उद्देश्य की पृथकता बतलाते हुए कहा१-उत्तराध्ययन, 525-27 / २-वही, 10 // 14 // ३-वही, 36 / 204-247 / ४-देखिए, दसवेआलियं तह उत्तरझयणाणि, शब्द-सूची-पृ० 204,210 / ५-उत्तराध्ययन, 19647-73 / ६-वही, 36 / 156-169 / ७-दीघनिकाय, 112, पृ० 20-21 / ८-वही, 112, पृ० 22 / ९-श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 11, अध्याय 2, खण्ड 2, पृ० 710: तमाहुर्वासुदेवांशं, मोक्षधर्मविवक्षया /