________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 3 श्रमण और वैदिक-परम्परा की पृष्ठभूमि आ पकी पष्ठ-भमि 73 34, 506 ; शतपथ ब्राह्मण 11, 5, 64) / वहाँ उज्ज्वल, विविध रंगों वाली गायें हैं जो सभी कामनाओं को पूर्ण करती हैं ( कामदुधा:-अथर्ववेद 4 / 348 ) / वहाँ न तो निर्धन हैं और न धनवान्, न शक्तिशाली हैं न शोषित (अथर्ववेद 3, 263) / "1 __"ऋग्वेद के रचयिताओं के विचार से यदि पुण्यात्मा लोग परलोक में अपना पुरस्कार प्राप्त करते हैं, तो दुष्टों के लिए भी परलोक में दण्ड मिलने का न सही, किन्तु कम से कम किसी न किसी प्रकार के आवास की कल्पना कर लेना भी, जैसा कि 'अवेस्ता' में है, स्वाभाविक ही है / जहाँ तक अथर्ववेद और कठ उपनिषद् का सम्बन्ध है, इनमें नरक की कल्पना निश्चित रूप से मिलती है। अथर्ववेद (2,143: 5, 163) यम के क्षेत्र (12-426) 'स्वर्ग-लोक' के विपरीत, 'नारक-लोक' नामक राक्षसियों और अभिचारिणियों के आवास के रूप में एक अधो-गृह ( पाताल-लोक ) की चर्चा करता है। हत्यारे लोग इसी नरक में भेजे जाते हैं (वाजसनेयि संहिता 30,5) / इसे अथर्ववेद में अनेक बार 'अधम अन्धकार' (8,224 इत्यादि),और साथ ही साथ, 'काला अन्धकार' (5,3011) और 'अन्ध अन्धकार' (18, 33) कहा गया है / नारकीय यातनाओं का भी एक बार ही अथर्ववेद (5, 19) में और अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत रूप से शतपथ ब्राह्मण (11, 6, 1) में वर्णन किया गया है ; क्योंकि परलोक के दण्ड की धारणा अपने स्पष्ट रूप में ब्राह्मण-काल और उसके बाद से ही विकसित हुई है।"२ __ उत्तराध्ययन में 'देव' शब्द का प्रयोग इकतीस बार हुआ है / चार बार 'देवलोक' (देवलोग या देवलोय) का प्रयोग हुआ है / 4 ___ उसमें तीसरे अध्ययन में बताया गया है- "कर्म के हेतु को दूर कर / क्षमा से यश ( संयम ) का संचय कर। ऐसा करने वाला पार्थिव शरीर को छोड़ कर ऊर्ध्व दिशा : (स्वर्ग या मोक्ष) को प्राप्त होता है / "विविध प्रकार के शीलों की आराधना करके जो देवकल्पों व उसके ऊपर के देवलोकों की आयु का भोग करते हैं, वे उतरोतर महाशुक्ल (चन्द्र-सूर्य) की तरह दीप्तिमान होते हैं। 'स्वर्ग से पुनः च्यवन नहीं होता'-ऐसा मानते हैं। वे दैवी भोगों के लिए अपने आपको अर्पित किए हुए रहते हैं / इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं तथा सैकड़ों पूर्व-वर्षों-असंख्य-काल तक वहाँ रहते हैं।'' १-वैदिक माइथोलॉजी 'हिन्दी अनुवाद' पृ० 316-320 / २-वही, पृ० 321-322 / ३-देखिए-दसवेआलियं तह उत्तरायणाणि, शब्द-सूची, पृ० 198 / / ४-वही, शब्द-सूची पृ० 198 / ५-उत्तराध्ययन, 3313-15 /