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________________ खण्ड 2, प्रकरण : 1 .. कथानक संक्रमण 317 और इन्द्रियों के विषय तुम्हें यही प्राप्त हैं, फिर किसलिए तुम श्रमण होना चाहते हो ?"-पिता ने कहा। पुत्र बोले--"पिता ! जहाँ धर्म की धुरा को वहन करने का अधिकार है / वहाँ धन स्वजन और इन्द्रिय-विषय का क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं / हम गुण-समूह से सम्पन्न श्रमण होंगे, प्रतिबन्ध-मुक्त हो कर गाँवों और नगरों में विहार करने वाले और भिक्षा ले कर जीवन चलाने वाले भिक्षु होंगे।' "पुत्रो ! जिस प्रकार अरणी में अविद्यमान् अग्नि उत्पन्न होती है, दूध में घी और तिल में तेल पैदा होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं / शरीर का नाश हो जाने पर उनका अस्तित्व नहीं रहता"-पिता ने कहा। ___ कुमार बोले-"पिता ! आत्मा अमूर्त है, इसलिए यह इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता। यह अमूर्त है, इसलिए नित्य है। यह निश्चय है कि आत्मा के आन्तरिक दोष ही उसके बन्धन के हेतु हैं और बन्धन ही संसार का हेतु है-ऐसा कहा है। ___ "हम धर्म को नहीं जानते थे, तब घर में रहे, हमारा पालन होता रहा और मोहवश हमने पाप-कर्म का आचरण किया। किन्तु अब फिर पाप-कर्म का आचरण नहीं करेंगे। "यह लोक पीड़ित हो रहा है, चारों ओर से घिरा हुआ है, अमोघा आ रही है / इस स्थिति में हमें सुख नहीं मिल रहा है।" ___ "पुत्रो ! यह लोक किससे पीड़ित है ? किससे घिरा हुआ है ? अमोघा किसे कहा जाता है ? मैं जानने के लिए चिन्तित हूँ"-पिता ने कहा / कुमार बोले-“पिता ! आप जानें कि यह लोक मृत्यु से पीड़ित है, जरा से घिरा हुआ है और रात्रि को अमोघा कहा जाता है। .."जो-जो रात बीत रही है, वह लौट कर नहीं आती। अधर्म करने वाले की रात्रियाँ निष्फल चली जाती हैं। ___“जो-जो रात बीत रही है, वह लौट कर नहीं आती। धर्म करने वाले की रात्रियाँ 'सफल होती हैं।" .."पुत्रो! पहले हम सब एक साथ रह कर सम्यक्त्व और व्रतों का पालन करें. फिर तुम्हारा यौवन बीत जाने के बाद घर-घर से भिक्षा लेते हुए विहार करेंगे"-पिता ने कहा। पत्र बोले-"पिताकल की इच्छा वही कर सकता है. जिसकी मत्य के साथ * मैत्री हो, जो मौत के मुंह से बच कर पलायन कर सके और जो जानता हो-मैं नहीं मरूंगा। "हम प्राज ही उस मुनि-धर्म को स्वीकार कर रहें हैं, जहाँ पहुँच कर फिर जन्म
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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