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________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन . लेना न पड़े / भोग हमारे लिए अप्राप्त नहीं है हम उन्हें अनेक बार प्राप्त कर चुके हैं / राग-भाव को दूर कर श्रद्धा पूर्वक श्रेय की प्राप्ति के लिए हमारा प्रयत्न युक्त है।" ___"पुत्रों के चले जाने के बाद मैं घर में नहीं रह सकता। हे वाशिष्ठि ! अब मेरे भिक्षाचर्या का काल आ चुका है। वृक्ष शाखाओं से समाधि को प्राप्त होता है। उनके कट जाने पर लोग उसे ढूँठ कहते हैं। ___ "बिना पंख का पक्षी, रण-भूमि में सेना-रहित राजा और जल-पोत पर धन-रहित व्यापारी जैसा असहाय होता है, पुत्रों के चले जाने पर मैं भी वैसा ही हो जाता हूँ।" __वाशिष्ठी ने कहा- "ये सुसंस्कृत और प्रचुर शृङ्गार-रस से परिपूर्ण इन्द्रिय-विषय, जो तुम्हें प्राप्त हैं, उन्हें अभी हम खूब भोगें। उसके बाद हम मोक्ष-मार्ग को स्वीकार करेंगे।" पुरोहित ने कहा- "हे भवति ! हम रसों को भोग चुके हैं। वय हमें छोड़ते चला जा रहा है / मैं असंयम-जीवन के लिए भोगों को नहीं छोड़ रहा हूँ। लाभ-अलाभ और सुख-दुःख को समदृष्टि से देखता हुआ मुनि-धर्म का आचरण करूंगा।" वाशिष्ठी ने कहा-"प्रतिस्रोत में बहने वाले बूढ़े हंस की तरह तुम्हें पीछे अपने बन्धुओं को याद न करना पड़े, इसलिए मेरे साथ भोगों का सेवन करो। यह भिक्षाचर्या और ग्रामानुग्राम विहार सचमुच दुःखदायी है।" .. पुरोहित ने कहा- "हे भवति ! जैसे सांप अपने शरीर की केंचुली को छोड़ मुक्तभाव से चलता है, वैसे ही पुत्र भोगों को छोड़ कर चले जा रहे हैं। पीछे मैं अकेला क्यों रहूँ, उनका अनुगमन क्यों न करूं? ____ "जैसे रोहित मच्छ जर्जरित जाल को काट कर बाहर निकल जाते हैं, वैसे ही उठाए हुए भार को वहन करने वाले प्रधान तपस्वी और धीर पुरुष काम-भोगों को छोड़ कर भिक्षाचर्या को स्वीकार करते हैं।" ___ वाशिष्ठी ने कहा- "जैसे क्रौंच पक्षी और हंस बहेलियों द्वारा बिछाए हुए जालों को काट कर आकाश में उड़ जाते हैं, वैसे ही मेरे पुत्र और पति जा रहे हैं / पीछे मैं अकेली क्यों रहूँ ? उनका अनुगमन क्यों न करूं ?" ___'पुरोहित अपने पुत्र और पत्नी के साथ भोगों को छोड़ कर प्रवजित हो चुका हैं'यह सुन राजा ने उसके प्रचुर और प्रधान धन-धान्य आदि को लेना चाहा, तब महारानी कमलावती ने बार-बार कहा "राजन् ! वमन खाने वाले पुरुष की प्रशंसा नहीं होती। तुम ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त धन को लेना चाहते हो, यह क्या है ? “यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाए अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाए तो भी वह तुम्हारी इच्छा-पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा।
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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