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________________ खण्ड 2, प्रकरण :1 कथानक संक्रमण 276 उस समय वेत्रवती नगरी के पास वेत्रवती नदी के किनारे जातिमन्त नाम का एक ब्राह्मण प्रव्रजित हुआ। वह 'जाति' के कारण बहुत अभिमानी था। बोधिसत्व उसका अभिमान चूर-चूर करने के लिए वहाँ आ, उसके पास ही नदी के ऊपर की ओर रहने लगे। उसने एक दिन दातुन कर यह संकल्प कर उसे नदी में गिराया कि यह दातुन जाकर जातिमन्त की जटाओं में लगे। जब वह पानी का आचमन करने लगा तो वह जाकर उसकी जटाओं में लगी। उसने यह देख कर कहा-"तेरा बुरा हो ! यह मनहूस कहाँ से ?" इसका पता लगाउँगा' सोच वह पानी के स्रोत के ऊपर गया। वहाँ उसने बोधिसत्व को देख कर पूछा-"क्या जात है ?" "चाण्डाल हूँ।" "तू ने नदी में दातुन गिराई ?" "हाँ, मैंने गिराई।" "तेरा बुरा हो, चाण्डाल मनहूस, यहाँ मत रह, स्रोत के नीचे की ओर रह / उसके नीचे जाकर रहने पर भी उसके गिराये हुए दातुन स्रोत से उलटे जा उसकी जटाओं में लगते / वह बोला-"तेरा बुरा हो। यदि यहाँ रहेगा तो आज से सातवें दिन तेरा सिर सात टुकड़े हो जायगा।" बोधिसत्व ने सोचा-यदि मैं इसके प्रति क्रोध करूँगा तो मेरा शील अरक्षित होगा। मै उपाय से ही इसका अभिमान चूर-चूर करूंगा। उसने सातवें दिन सूर्योदय रोक दिया। मनुष्य क्रोधित हो जातिमन्त तपस्वी के पास पहुंचे और पूछा- “भन्ते ! तुम सूर्योदय नहीं होने देते ?" वह बोला-"यह मेरा काम नहीं है, नदी के किनारे एक चाण्डाल रहता है, यह उसका काम होगा।" आदमियों ने बोधिसत्व के पास पहुँच पूछा-"भन्ते ! तुम सूर्योदय नहीं होने देते?" "आयुष्मानो ! हाँ।" "क्यों ?" "तुम्हारे कुल विश्वस्त तपस्वी ने मुझ निरपराध को शाप दिया है / वह आकर जब मेरे पाँव में गिर कर क्षमा माँगेगा तब सूर्य को मुक्त करूंगा।" वे गये और उसे खींच कर लाये और बोधिसत्व के पैरों में गिरा कर क्षमा मंगवाई और प्रार्थना की-"भन्ते ! सूर्य को मुक्त करें।" "मैं नहीं छोड़ सकता, यदि मैं छोड़ दूंगा तो उसका सिर सात टुकड़े हो जायेगा।" "भन्ते ! क्या करें?" उसने "मिट्टी लाओ" कह मिट्टी का ढेला मँगवाया। फिर “इसे तपस्वी के सिर पर रख तपस्वी को पानी में उतारो" कह तपस्वी को पानी में उतरवा सूर्य को मुक्त किया। सूर्य-रश्मि का स्पर्श होते ही मिट्टी के ढेले के सात टुकड़े हो गये। तपस्वी ने पानी में गोता लगाया। उसका दमन कर बोधिसत्व ने जिज्ञासा की-"सोलह हजार ब्राह्मण कहाँ रहते हैं ?" पता लगा कि मेद-राष्ट्र के पास / उनका दमन करने की इच्छा से वह ऋद्धि से वहाँ पहुंचा और नगर के पास उतर भिक्षापात्र ले नगर में भिक्षाटन के लिए निकला। ब्राह्मणों ने सोचा-यदि यह यहाँ एकाध दिन भी रह गया तो हमें अप्रतिष्ठित कर देगा। उन्होंने शीघ्रता से जाकर राजा को कहा--"एक मायाधर जादूगर आया है / उसे पकड़वायें।" राजा ने “अच्छा" कह स्वीकार किया। बोधिसत्व मिला
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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