________________ खण्ड : १,प्रकरण :7 २-योग (26) कर्म-मल का विशोधन होता है। (27) दूसरों को संवेग उत्पन्न होता है / (28) मिथ्या-दृष्टियों में भी सौम्य-भाव उत्पन्न होता है। (26) मुक्ति-मार्ग का प्रकाशन होता है। (30) तीर्थङ्कर की आज्ञा की आराधना होती है / (31) देह-लाघव प्राप्त होता है। (32) शरीर-स्नेह का शोषण होता है। (33) राग आदि का उपशम होता है। (34) आहार की परिमितता होने से नीरोगता बढ़ती है / (35) संतोष बढ़ता है। आभ्यन्तर-तप आभ्यन्तर-तप के छह प्रकार निम्नलिखित हैं - (1) प्रायश्चित्त, (2) विनय, (3) वैयावृत्त्य, (4) स्वाध्याय, (5) ध्यान और (6) व्युत्सर्ग। (1) प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त आभ्यन्तर-तप का पहला प्रकार है। उसके दस प्रकार हैं: (1) आलोचना योग्य-- गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना। (2) प्रतिक्रमण योग्य- किए हुए पापों से निवृत्त होने के लिए 'मिथ्या मे दुष्कृतम्'-मेरे सब पाप निष्फल हों-ऐसा कहना, कायोत्सर्ग आदि करना तथा भविष्य में पाप-कर्मों से दूर रहने के लिए सावधान रहना। (3) तदुभय योग्य- पाप से निवृत्त होने के लिए आलोचना और प्रति- ' क्रमण-दोनों करना। (4) विवेक आए हुए अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग करना / चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति के साथ कायोत्सर्ग करना। १-मूलाराधना, 3 / 237-244 / (5) व्युत्सर्ग