________________ 170 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन स्थिर अवस्था को 'ध्यान' कहा जाता है।' वस्तुत: चित और ध्यान एक ही मन (अध्यवसान) के दो रूप हैं। मन जब गुप्त, एकान या निरुद्ध होता है, तब उसकी संज्ञा ध्यान हो जाती है। भावना, अनुप्रेक्षा और चिंता-ये सब चित्त की अवस्थाएँ हैं / भावना- ध्यान के अभ्यास की क्रिया। अनुप्रेक्षा- ध्यान के बाद होने वाली मानसिक चेष्टा। चिंता सामान्य मानसिक चिन्तन / इनमें एकाग्रता का वह रूप प्राप्त नहीं होता, जिसे ध्यान कहा. जा सके / ध्यान शब्द 'ध्ये चिन्तायाम्' धातु से निष्पन्न होता है / शब्द की उत्पत्ति की दृष्टि से ध्यान का अर्थ चिन्ता होता है, किन्तु प्रवृत्ति-लभ्य अर्थ उससे भिन्न है। ध्यान का अर्थ चिन्तन नहीं किन्तु चिन्तन का एकाग्रीकरण अर्थात् चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर करना या उसका निरोध करना है। तत्त्वार्थ सूत्र में एकाग्न चिन्ता तथा शरीर, वाणी और मन के निरोध को ध्यान कहा गया है। इससे यह ज्ञात होता है कि जैन-परम्परा में ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से ही . नहीं माना गया था। वह मन, वाणी और शरीर-इन तीनों से सम्बन्धित था। इस अभिमत के आधार पर उसकी पूर्ण परिभाषा इस प्रकार बनती है-शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवृत्ति तथा उनकी निरेजन दशा-निष्प्रकम्प दशा ध्यान है।पतञ्जलि ने ध्यान का सम्बन्ध केवल मन के साथ माना है। उनके अनुसार जिसमें धारणा की गई हो, उस देश में ध्येय-विषयक ज्ञान की एकतानता ( अर्थात् सदृश प्रवाह ) जो अन्य ज्ञानों से अपरामृष्ट हो, को ध्यान कहा जाता है / सदृश प्रवाह का अभिप्राय यह है कि जिस ध्येय विषयक पहली वृति हो, उसी विषय की दूसरी और उसी . विषय की तीसरी हो- ध्येय से अन्य ज्ञान बीच में न हो / 6 पतञ्जलि ने एकाग्रता और निरोध- ये दोनों केवल १-ध्यानशतक 2: जं थिरमझवसाणं तं माणं जं चलं तयं चित्तं / २-वही, 2: तं होज्ज भावणा वा अगुप्पेहा वा अहव चिंता। ३-आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1463 : अंतो मुहुतकालं चित्तस्सेगग्गगया हवइ झाणं / ४-तत्त्वार्थ, सूत्र 9 / 27 : उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहुर्तात् / ५-आवश्यक, नियुक्ति 1467-1478 / ६-पातंजल योगदर्शन 32: तत्र पत्ययैकतानता ध्यानम् /