________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 5 ७-जैन-धर्म और वैश्य लम्बी परम्परा रही है। इसी संदर्भ में उस निष्कर्ष को मान्य नहीं किया जा सकता कि अहिंसा प्रधान होने के कारण जैन-धर्म क्षत्रिय-वर्ग के अनुकूल नहीं है / (2) भगवान् महावीर के श्रावकों में आनन्द गृहपति का स्थान पहला है / वह बहुत बड़ा कृषिकार था। उसके पास चार व्रज थे। प्रत्येक ब्रज में दस-दस हजार गाएँ थीं। आज भी कच्छ आदि प्रदेशों में हजारों जैन खेतीहर हैं। एक शताब्दी पूर्व राजस्थान में भी हजारों जैन-परिवार खेती किया करते थे। इस संदर्भ में वह निष्कर्ष भी मान्य नहीं होता कि अहिंसा प्रधान होने के कारण जैन-धर्म किसानों के अनुकूल नहीं है / (3) व्यापार में प्रत्यक्ष जीव-वध नहीं होता, इसलिए वह अहिंसा प्रधान जैन-धर्म के अधिक अनुकूल है, यह भी विशेष महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं है। जैन आचार्यों ने असि, मषी, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य-इन छहों कर्मों को एक कोटि का माना है / तलवार, धनुष आदि शस्त्र-विद्या में निपुण असि-कार्य हैं / मुनीमी का कार्य करने वाला मषि-कर्मार्य है / धोबी,नाई, लुहार, कुम्हार आदि शिल्प-कर्मार्य है / चन्दन, घी, धान्य आदि का व्यापार करने वाला वणिक्कार्य है / ये छहों अविरत होने से सावद्यकर्यि हैं।' ___जो लोग अव्रती होते हैं, जिनके संकल्ली-हिंसा का त्याग नहीं होता, वे भले रक्षा का काम करें, खेती करें या वाणिज्य करें, सावध काम करने वाले ही होते हैं। जो श्रावक होते हैं, उनके व्रत भी होता है, इसलिए वे चाहे व्यापार करें, खेती करें या रक्षा का काम करें, अल्पसावध काम करने वाले होते हैं / 2 जैन-श्रावक बनने का अर्थ : कृषि, रक्षा आदि से दूर हटना नहीं, किन्तु संकल्पी-हिंसा और अनर्थ-हिंसा का त्याग करना है। जैन-आचार्यों ने केवल प्रत्यक्ष जीव-वध को ही दोषपूर्ण नहीं माना, किन्तु मानसिक हिंसा को भी दोषपूर्ण माना है। इसी आधार पर आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण में व्याज के धन्धे को महाहिंसा की कोटि में उपस्थित किया था। (4) धावकों के लिए ऐसे दैनिक-जीवन का गठन नहीं किया गया, जिससे वह वैश्य-वर्ग के सिवाय अन्य वर्गो के अनुकूल न हो / - (5) बंगाल में जैन-धर्म के अस्तित्व की चर्चा पहले की जा चुकी है। उसके आधार पर कहा जा सकता है - 'शहरी जीवन विरोधी बंगाल जैनत्व को बहुत कम ग्रहण कर सका'-यह तथ्य भी सारपूर्ण नहीं है। १-तत्त्वार्थ राजवार्तिक, 3 / 36 : षडप्येते अविरतिप्रवणत्वात् सावधकार्याः / २-वही, 3 / 36 : अल्पसावद्यकर्मार्याः श्रावकाः श्राविकाश्च विरत्यविरतिपरिणतत्वात् /