________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन - सिद्धान्त पश्चिम के एशेटिक प्रोटेस्टेन्टीज्म के सिद्धान्त से मिलता-जुलता है / प्रोटेस्टेन्टीज्म ने सम्पत्ति और लाभ को बुरा नहीं बताया किन्तु उसमें लवलीन होने को आपत्तिजनक बताया है। और भी बातें समान हैं। जैन-मत में अतिशयोक्ति या झूठ वर्ण्य है / जैन लोग व्यापार में बिल्कुल सच्चाई रखने पर विश्वास करते हैं। माया रूपी कार्यों की एकदम मनाही है। झूठ, चोरी या श्रष्ट तरीकों से कमाए हुए धन को वर्जित मानते हैं। "जैन विशेषतः श्वेताम्बर सभी जैनों के व्यापारी बनने का मुख्य हेतु धार्मिक सिद्धान्त ही है। केवल व्यापार ही एक ऐसा व्यवसाय है, जिसमें अहिंसा का पालन किया जा सकता है। उनके व्यवसाय का विशेष तरीका भी धार्मिक नियमों से निश्चित होता था। जिसमें विशेष करके यात्रा के प्रति गहरी अरुचि रहती थी और यात्रा को कठिन बनाने के अनेक नियमों ने उन्हें स्थानीय व्यापार के लिए प्रोत्साहित किया, फिर जैसा कि यहूदियों के साथ हुआ, वे साहूकारी (बैकिंग) और व्याज के धन्धों में सीमित रह गए। ___ "उनकी पूजी लेन-देन में ही सीमित रही और वे औद्योगिक संस्थानों के निर्माण में असफल रहे। इसका मूल कारण भी जैन-मत का संद्धान्तिक पक्ष ही रहा जिससे की जैन लोग उद्योग में पादन्यास कर ही नहीं सके। "जैन-सम्प्रदाय की उत्पत्ति भारतीय नगर के विकास के साथ-साथ प्रायः समसामयिक है / इसीलिए शहरी-जोवन विरोधी बंगाल जैनत्व को बहुत कम ग्रहण कर सका। लेकिन यह नहीं मानना चाहिए कि यह सम्प्रदाय धनवानों से उत्पन्न है। यह क्षत्रियों की विचार कल्पना से तथा गृहस्थों की संन्यास भावना से प्रस्फुटित हुआ है। इसके सिद्धान्त विशेषकर श्रावकों (गृहस्थों के लिए निश्चित विधान) तथा दूसरे धार्मिक नियमों ने ऐसे दैनिक-जीवन का गठन किया, जिसका पालन व्यापारियों के लिए ही संभव था।" मैक्स वेबर की ये मान्यताएं काल्पनिक तथ्यों पर आधारित हैं। वास्तविक तथ्य ये हैं (1) जैन-श्रावक के लिए आक्रमणकारी होने का निषेध है। वह प्रत्याक्रमण की हिंसा से अपने को मुक्त नहीं रख पाता। भगवान महावीर के समय जिन क्षत्रियों या क्षत्रिय राजाओं ने अनाक्रमण का व्रत लिया था, उन्होंने भी अमुक-अमुक स्थितियों में लड़ने की छूट रखी थी। - जैन सम्राटों, राजाओं, सेनापतियों, दण्डनायकों और संनिकों ने देश की सुरक्षा के लिए अनेक लड़ाइयाँ लड़ी थीं। गुजरात और राजस्थान में जैन-सेनानायकों की बहुत १-दी रिलिजन्स ऑफ इण्डिया, पृ० 193-202 /