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________________ खण्ड 1, प्रकरण : 5 ७-जैन-धर्म और वैश्य 115 सुन कर भोट (तिब्बत) सामन्त कीर्तिध्वज ने उन्हें अपने यहाँ निमन्त्रित किया। विक्रमशिला के संघराज कई सालों भोट में रहे और अन्त में ऊपर ही ऊपर अपनी जन्मभूमि कश्मीर में जा कर उन्होंने 1226 ई० में शरीर छोड़ा। 'शाक्य श्रीमद्' की तरह न जाने कितने बौद्ध भिक्षुओं और धर्माचार्यों ने बाहर के देशों में जाकर शरण ली। बौद्धों के धार्मिक नेता गृहस्थ नहीं, भिक्षु थे। इसलिए एक जगह छोड़ कर दूसरी जगह चला जाना उनके लिए आसान था। बाहरी बौद्ध देशों में जहाँ उनकी बहुत आवभगत थी, वहाँ देश में उनके रंगे कपड़े मृत्यु के वारंट थे। यह कारण था, जिससे कि भारत के बौद्धकेन्द्र बहुत जल्दी बौद्ध भिक्षुओं से शून्य हो गए। अपने धार्मिक नेताओं के अभाव में बौद्ध-धर्म बहुत दिनों तक टिक नहीं सकता था। इस प्रकार और वह भारत में तुर्कों के पैर रखने के एक-डेढ़ शताब्दियों में ही लुप्त हो गया। बज्रयान के सुरा-सुन्दरी सेवन ने चरित्र-बल को खोखला करके इस काम में और सहायता को।" 1 ७-जैन धर्म और वैश्य कुछ विद्वान् कहते हैं कि जैन-धर्म अहिंसा को सर्वाधिक महत्त्व देता है। युद्ध और रक्षा में हिंसा होती है, इसलिए यह धर्म क्षत्रियों के अनुकूल नहीं है / कृषि आदि कर्मों में हिंसा होती है, इसलिए यह किसानों के भी अनुकूल नहीं है / यह सिर्फ उन व्यापारियों के अनुकूल है, जो शान्तिपूर्वक अपना व्यापार चलाते हुए जीव-हिंसा से बचाव करने का यत्न किया करते हैं / मैक्स वेबर ने उक्त विषय पर कुछ विस्तार से लिखा है “जैन-धर्म एक विशिष्ट व्यापारिक-सम्प्रदाय है, जो पश्चिम के यहूदियों से भी ज्यादा एकांतिक रूप से व्यापार में लगा हुआ है। इस प्रकार हम स्पष्ट रूप से एक धर्म का व्यापारिक उद्देश्य के साथ सम्बन्ध देखते हैं, जो हिन्दू-धर्म के लिए बिल्कुल विदेशीय है / ___".. अहिंसा के सिद्धान्त ने जैनियों को जीव-हिंसा वाले तमाम उद्योगों से अलग रखा। अतः उन व्यापारों से जिनमें अग्नि का प्रयोग होता है, तेज या तीक्ष्णधार वाले यंत्रों का उपयोग ( पत्थर या काठ के कारखाने आदि में ) होता है, भवनादि निर्माण व्यवसाय तथा अधिकांश उद्योग-धन्धों से जैनियों को अलग रखा / खेती-बारी का काम तो बिल्कुल ही बाद पड़ गया, क्योंकि विशेषतः खेत जोतने में कीड़े-मकोड़े आदि की सदा हिंसा होती है। ___ "यह उल्लेखनीय है कि (जैनधर्म में ) अधिक धन संचित करने की मनाही नहीं है बल्कि धन का अत्यधिक मोह या सम्पत्ति के पीछे पागल हो जाने की मनाही है / यह १-(क) बौद्ध संस्कृति, पृ० 33-34 / (ख) बुद्धचर्या, पृ० 12-13 /
SR No.004302
Book TitleUttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1968
Total Pages544
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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