________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 २-योग 181 (5) आलम्बन-आर की चढ़ाई में जैसे रस्सी आदि के सहारे की आवश्यकता होती है, वैसे ही ध्यान के लिए भी कुछ आलम्बन आवश्यक होते हैं। इनका उल्लेख 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में किया जा चुका है। (6) क्रम- पहले स्थान (स्थिर रहने) का अभ्यास होना चाहिए। इसके पश्चात् मौन का अभ्यास करना चाहिए। शरीर और वाणी दोनों की गुप्ति होने पर ध्यान (मन की गप्ति) सहज हो जाता है / अपनी शक्ति के अनुसार ध्यान-साधना के अनेक क्रम हो सकते हैं। (7) ध्येय-ध्यान अनेक हो सकते हैं, उनकी निश्चित संख्या नहीं की जा सकती। ध्येय विषयक चर्चा 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में की जा चुकी है। (5) ध्याता-ध्यान के लिए कुछ विशेष गुणों की अपेक्षाएँ हैं / वे जिसे प्राप्त हों, वही व्यक्ति उसका अधिकारी है। ध्यानशतक में उन विशेष गुणों का उल्लेख इस प्रकार है (1) अप्रमाद- मद्यपान, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा-ये पाँच प्रमाद हैं / इनसे जो मुक्त होता है, (2) निर्मोह- जिसका मोह उपशान्त या क्षीण होता है ओर (3) ज्ञान-सम्पन्न- जो ज्ञान-सम्पदा से युक्त होता है, वही व्यक्ति धर्म्य ... ध्यान का अधिकारी है। सामान्य धारणा यही रही है कि ध्यान का अधिकारी मुनि हो सकता है / रायसेन और शुभचन्द्र५ का भी यही मत है। इसका अर्थ यह नहीं कि गृहस्थ के धर्म्यध्यान होता ही नहीं, किन्तु इसका अभिप्राय यह है कि उसके उत्तम कोटि का ध्यान नहीं होता। धर्म्य-ध्यान की तीन कोटियाँ हो सकती हैं--उत्तम, मध्यम और अवर / उत्तम कोटि का ध्यान अप्रमत्त व्यक्तियों का ही होता है। मध्यम और अवर कोटि का ध्यान शेष व्यक्तियों के हो सकता है। उनके लिए यही सीमा मान्य है कि इन्द्रिय और मन पर .उनका निग्रह होना चाहिए / १-ध्यानशतक, 43 / २-वही, 63 / ३-वही, 63 / ४-तत्त्वानुशासन, 41-45 : ५-ज्ञानार्णव, 4 / 17 / ६-तत्त्वानुशासन, 38: गुप्तेन्द्रियमना ध्याता।