________________ प्रकरण : नौवाँ १-व्याकरण-विमर्श आर्ष-साहित्य में अर्वाचीन प्राकृत व्याकरणों की अपेक्षा कुछ विशिष्ट प्रयोग मिलते हैं। उत्तराध्ययन में बृहद् वृत्तिकार ने यत्र-तत्र व्याकरण का विमर्श किया है। जहाँ बृहद्वृत्तिकार का विमर्श प्राप्त नहीं है वहाँ हमने अपनी ओर से उसकी पूर्ति की है। प्रस्तुत विषय नौ भागों में विभक्त है-१-सन्धि, २-कारक, ३-वचन, ४-समास, ५-प्रत्यय, ६-लिङ्ग, ७-क्रिया और अर्द्ध क्रिया, ८-आर्ष-प्रयोग ओर ६-विशेष-विमर्श / १-सन्धि जत्तं 1121 इसमें दो शब्द हैं-'ज' और 'तं'। 'ज' के बिन्दु का लोप और 'त' को द्वित्व करने पर 'जत्तं' (सं० यत् तत्) रूप निष्पन्न हुआ है।' सुइरादवि 7 / 18 यह मंस्कृत-तुल्य सन्धि-प्रयोग है / (सं० सुचिरादपि)। विप्परियासुवेइ 20 / 46 - यह सन्धि का अलाक्षणिक प्रयोग है। (विपरियासं+उवेइ)। (क) ह्रस्व का दीर्धीकरण मणूसा 4 / 2 __ यहाँ एक सकार का लोप और उकार को दीर्घ किया गया है। समाययन्ती 4 / 2 यहाँ 'ती' में इकार दीर्घ है। परत्था 4 / 5 / यहाँ 'त्या' में अकार दीर्घ है। फुसन्ती 4 / 11 यहाँ 'ती' में इकार दीर्घ है। अणेगवासानउया 713 .. यहाँ 'वासा' में अकार दीर्घ है। .१-बृहद् वृत्ति, पत्र 55 // २-वही, पत्र 277 /