________________ खण्ड 1, प्रकरण : 7 ३-बाह्य-जगत् और हम ज्ञान, लाभ, आचार-विशुद्धि, सम्यक् आराधना आदि विनय के परिणाम हैं / 1 . चित्त-समाधि का लाभ, ग्लानि का अभाव, प्रवचन-वात्सल्य आदि विनय के परिणाम हैं। प्रज्ञा का अतिशय, अध्यवसाय की प्रशस्तता, उत्कृष्ट संवेग का उदय, प्रवचन की अविच्छिम्नता, अतिचार-विशुद्धि, संदेह-नाश, मिथ्यावादियों के भय का अभाव आदि स्वाध्याय के परिणाम हैं। . कषाय से उत्पन्न ईप्यो, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से बाधित न होना, सर्दी, गर्मो, भूख, प्यास आदि शरीर को प्रभावित करने वाले कष्टों से बाधित न होना ध्यान के परिणाम हैं। __निर्ममत्व, निर्भयता, जीवन के प्रति अनासक्ति, दोषों का उच्छेद, मोक्ष-मार्ग में तत्परता आदि व्युत्सर्ग के परिणाम हैं।" ३-बाह्य-जगत् और हम प्रवृति के तीन स्रोत हैं-(१) शरीर, (2) वाणी और (3) मन / इन्हीं के द्वारा हम बाह्य-जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित किए हुए हैं। इन्द्रियों के द्वारा भी हम बाह्यजगत् से सम्पृक्त हैं। बाह्य-जगत् का भी वास्तविक अस्तित्व है और हमारा अस्तित्व भी वास्तविक है / साधना की प्रक्रिया में किसी के अस्तित्व को चुनौती नहीं दी जाती, किन्तु अपने अस्तित्व के प्रति जागरूकता उत्पन्न की जाती है। उसकी प्रक्रिया को 'गुप्ति' कहा जाता है / उसके द्वारा बाह्य-जगत् के साथ हमारा रागात्मक सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है, ज्ञानात्मक सम्बन्ध विच्छिन होता ही नहीं और उसे करने की आवश्यकता भी नहीं है। गुप्तियाँ तीन हैं-(१) मन-गुप्ति, (2) वचन-गुति और (3) काय-गुप्ति / (1) मन-गुप्ति- राग-द्वेष की निवृत्ति या मन का संवरण / (2) वचन-गुप्ति-असत्य वचन आदि की निवृत्ति या मौन / . . (3) काय-गुप्ति-हिंसा आदि की निवृत्ति या कायिक-क्रिया का संवरण / गुप्ति के द्वारा बाह्य-जगत् के साथ हमारा जो रागात्मक सम्बन्ध है, उसका निवर्तन होता है और बाह्य-जगत् के साथ हमारा जो प्रवृत्यात्मक सम्बन्ध है, उसका भी निवर्तन १-तत्त्वार्थ, 9 / 23 श्रुतसागरीय वृत्ति / २-बहो, 9 / 24 श्रुतसागरीय वृत्ति / ३-वही, 9 / 25 श्रुतसागरीय वृत्ति / ४-ध्यानशतक, 105-106 / ५-तत्वार्थ, 9 / 26 श्रुतसागरीय वृत्ति /