________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 2 २-श्रमण-परम्परा की एकसूत्रता और उनके हेतु 47 भी खिंच चुकी थीं / शतपथ ब्राह्मणकार ने कहा-"जिस स्थान पर कामनाएं पूर्ण होती हैं, वहाँ पहुंचना विद्या की सहायता से ही संभव है। वहाँ न दक्षिणा पहुँच पाती है और न विद्या-हीन तपस्वी।"१ ___ ऋषि कावषेय कहते हैं-"हम वेदों का अध्ययन किसलिए करें और यज्ञ भी किसलिए करें ? क्योंकि वाणी का उपरम होने पर प्राण-वृत्ति का विलय होता है और प्राण का उपरम होने पर वाणी की वृत्ति का उद्भव होता है, प्राण की प्रवृत्ति होने पर वाणी की वृत्ति विलीन हो जाती है।"२ ___ उपनिषद्कार ने कहा- "यज्ञ के अट्ठारह ( सोलह ऋत्विक, यजमान और पत्नी) साधन, जो ज्ञान रहित कर्म के आश्रय होते हैं, विनाशी और अस्थिर हैं। जो मूढ़ 'यही श्रेय है' इस प्रकार इनका अभिनन्दन करते हैं, वे बार-बार जरा-मरण को प्राप्त होते रहते हैं।"3 इस विचारधारा के उपरान्त भी यज्ञ-संस्था निर्वीर्य नहीं हुई थी। भगवान् महावीर के काल में भी उसका प्रवाह चालू था। उत्तराध्ययन के चार अध्ययनों (6,12,14,25) में उसकी चर्चा हुई है। भृगु पुत्रों ने जो कहा, वह लगभग वही है जो ऋषि कावषेय ने कहा था। भृगु ने कहा-"पुत्रो ! पहले वेदों का अध्ययन करो, फिर आरण्यक मुनि हो जाना।"४ तब वे बोले-"पिता ! वेद पढ़ लेने पर भी वे त्राण नहीं होते / "5 इस उत्तर के पीछे जो भावना है, उसका सम्बन्ध कामना और यज्ञ से है। वेद कामना-पूर्ति और यज्ञों के प्रतिपादक हैं, इसीलिए वे त्राण नहीं हैं। इस अत्राणता का विशद वर्णन प्रजापति मनु और वृहस्पति के संवाद में मिलता है। मनु ने कहा-"वेद में जो कर्मों के प्रयोग बताए गए हैं, वे प्रायः सकामभाव ये युक्त हैं / जो इन कामनाओं से मुक्त होता है, वही परमात्मा को पा सकता है। नाना प्रकार के कर्म-मार्ग में सुख की इच्छा रख कर प्रवृत्त होने वाला मनुष्य परमात्मा को प्राप्त नहीं होता।"६ . उत्तराध्ययन से यह भी पता चलता है कि उस समय निर्ग्रन्थ श्रमण यज्ञ के बाडों में १-शतपथ ब्राह्मण, 10 / 5 / 4 / 16 / २-ऐतरेय आरण्यक, 3 / 2 / 6, पृ०.२६६ : एतद्ध स्म वै तद्विद्वांस आहु ऋषयः कावषेयाः किमर्था वयमध्येष्यामहे किमर्था वयं यक्ष्यामहे वाचि हि प्राणं जुहुमः प्राणे वा वाचं यो ह्य व प्रभवः स एवाप्ययः इति। ३-मुण्डकोपनिषद्, 1127 / ४-उत्तराध्ययन, 14 / 9 / ५-वही, 14 / 12 / ६-महाभारत, शान्तिपर्व 201 / 12 /