________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन / ऋग्वेद में यों व्यक्त हुआ है-यज्ञ इस भुवन की, उत्पन्न होने वाले संसार की नाभि है, उत्पत्ति प्रधान है। देव तथा ऋषि यज्ञ से ही उत्पन्न हुए; यज्ञ से ही ग्राम और अरण्य के पशुओं की सृष्टि हुई; अश्व, गाएँ, अज, भेड़ें, वेद आदि का निर्माण भी यज्ञ के ही कारण हुआ। यज्ञ ही देवों का प्रथम धर्म था / ' __आर्य-पूर्व-जातियों ( जो श्रमण-परम्परा का अनुगमन करती थीं ) का प्रथम धर्म था अहिंसा / इसीलिए वे यज्ञ-संस्था से कभी प्रभावित नहीं हुई। जैन और बौद्ध-साहित्य में यज्ञ के प्रति जो अनादर का भाव मिलता है, वह उनकी चिरकालीन यज्ञ-विरोधी धारणा का परिणाम है। ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा-"राजर्षे ! पहले तुम विपुल यज्ञ करो, फिर श्रमण बन जाना / "2 इस पर राजर्षि ने कहा-"जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गाएं देता है, उसके लिए भी संयम श्रेय है, भले फिर वह कुछ भी न दे।"3 यज्ञ-संस्था का प्रतिरोध प्रारम्भ से ही होता रहा है। अग्नि-हीन व्यक्तियों का उल्लेख ऋगवेद में मिलता है। उन्हें देव-विरोधी और यज्ञ-विरोधी भी कहा गया है। यति-वर्ग यज्ञ-विरोधी था / इन्द्र ने उसे सालावकों को समर्पित किया था। इस प्रकार के और भी अनेक वर्ग थे। उन्होंने वैदिक धारा को प्रभावित किया था। लक्ष्मण शास्त्री के अनुसार- "इस अवैदिक और यज्ञ को न मानने वाली प्रवृत्ति ने वैदिक विचार पद्धति को भी प्रभावित किया। बाह्य कर्मकाण्ड के बदले मानसिक कर्म रूप उपासना को प्रधानता देने वाली विचारधारा यजुर्वेद में प्रकट हुई है। उसमें कहा गया है कि जिस तरह अश्वमेव के बल पर पाप और ब्रह्म-हत्या से मुक्त होना संभव है उसी तरह अश्वमेध की चिन्तनात्मक उपासना के बल पर भी इन्हीं दोषों से मुक्त होना संभव है ( तैत्तिरीय संहिता 5 / 3 / 12) / इस तरह की शुद्ध मानसिक उपासना का विधान करने वाले अनेकों वैदिक उल्लेख प्राप्त हैं।' यज्ञ-संस्थान का प्रतिरोध श्रमण ही नहीं कर रहे थे किन्तु उनसे प्रभावित आरण्यक और औपनिषदिक ऋषि भी करने लगे थे। प्रतिरोध की थोड़ी रेखाएं ब्राह्मण-काल में १-वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० 40 / २-उत्तराध्ययन, 9138 / ३-वही, 9 / 40 / ४-ताण्ड्य महाब्राह्मण, 1334 : इन्द्रो यतीन् सालावृकेभ्यः प्रायच्छत् / ५-वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० 196 /