________________ उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन क्षितिमोहन सेन ने जिन वस्तुओं को वेद-बाह्य या अवैदिक कहा है, उनका महत्त्व या महत्त्वपूर्ण उल्लेख श्रमण-परम्परा के साहित्य में मिलता है। उनके आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन नहीं है कि जिसे आर्य-पूर्व संस्कृति या अवैदिक-परम्परा कहा जाता है, वह श्रमण-परम्परा ही होनी चाहिए। पुरातत्त्व मोहनजोदड़ो की खुदाई से जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनका सम्बन्ध श्रमण या जैनपरम्परा से है, ऐसा कुछ विद्वान् मानते हैं / यद्यपि एक मत से यह तथ्य स्वीकृत नहीं हुआ है फिर भी सारे परिकर का सूक्ष्म अवलोकन करने पर उनका सम्बन्ध श्रमण-परम्परा से ही जुड़ता है / इसके लिए सर जान मार्शल की "मोहनजोदड़ो एण्ड इट्स सिविलिजेशन" के प्रथम भाग की बारहवीं प्लेट की 13, 14, 15, 18, 16 और 22 वीं कोष्ठिका के मूर्ति-चित्र दर्शनीय हैं। सिन्धु-घाटी से प्राप्त मूर्तियों और कुषाणकालीन जैन-मूर्तियों में अपूर्व साम्य है। कायोत्सर्ग-मुद्रा जैन-परम्परा की ही देन है। प्राचीन जैन-मूर्तियाँ अधिकांशतः इसी मुद्रा में प्राप्त होती हैं। मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों की विशेषता यह है कि वे कायोत्सर्ग अर्थात् खड़ी मुद्रा में हैं, ध्यान-लीन हैं और नग्न हैं / खड़े रह कर कायोत्सर्ग करने की पद्धति जैन-परम्परा में बहुत प्रचलित है / इस मुद्रा को 'स्थान' या 'ऊर्ध्वस्थान' कहा जाता है। पतञ्जलि ने जिसे आसन कहा है, जैन आचार्य उसे 'स्थान' कहते हैं। स्थान का अर्थ है 'गति-निवृत्ति' / उसके तीन प्रकार हैं (1) ऊर्ध्व स्थान- खड़े होकर कायोत्सर्ग करना / (2) निषीदन स्थान-बैठकर कायोसर्ग करना / (3) शयन स्थान- सोकर कायोत्सर्ग करना / ' पर्यङ्कासन या पद्मासन जैन-मूर्तियों की विशेषता है। धर्म-परम्पराओं में योगमुद्राओं का भेद होता था, उसी के संदर्भ में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है "प्रभो ! आपको पर्यङ्क आसन और नासाग्र दृष्टि वाली योग-मुद्रा को भी परतीर्थिक नहीं सीख पाए हैं तो भला वे और क्या सीखेंगे ?"2 प्रोफेसर प्राणनाथ ने मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर 'जिनेश्वर' शब्द पढ़ा है। डेल्फी से प्राप्त प्राचीन आर्गिव मूर्ति, जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है, ध्यान लीन है और १-आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1465; आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र 773 / २-आयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, श्लोक 20 / ३-इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटी, 8, परिशिष्ट पृ० 30 / .